नेपाल में हुए हिंसक प्रदर्शनों के बीच पीएम केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ गया. बात यहीं खत्म नहीं हुई. प्रोटेस्टर्स ने सरकारी संपत्ति को भी खासा नुकसान पहुंचाया. लगभग यही पैटर्न पूरे एशिया में दिखता रहा. भारत के कई पड़ोसी देश तख्तापलट से गुजर चुके. इस बीच एक और मुल्क की चर्चा हो रही है. बोलिविया. लैंड-लॉक्ड इस देश में सबसे ज्यादा बार सत्ता पलटने की कोशिश की गई.
सत्ता परिवर्तन तो हर जगह होता रहता है लेकिन तख्तापलट कुछ अलग है. जब किसी देश में अचानक और गैरकानूनी तरीके से सत्ता बदल जाए तो वो यही है. यह अक्सर काफी तेजी से होता है ताकि सरकार या सरकार के साथियों को संभलने का मौका न मिले. सैन्य तख्तापलट सबसे कॉमन है, जहां सरकार को गिरा सेना सत्ता में आ जाती है.
वैसे ये सिर्फ सेना तक सीमित नहीं. आम जनता भी कई बार सत्ता बदलने के लिए सड़कों पर आ जाती है. शांतिपूर्ण प्रदर्शन हिंसक हो जाता है और लोगों को दबाव सरकार को हिला देता है. आजकल सोशल मीडिया इसे खाद-पानी दे रहा है. ज्यादातर चीजें यहीं तय हो जाती हैं और सब कुछ काफी ऑर्गेनाइज्ड तरीके से होता है.

बोलिविया इसका एक उदाहरण है. 19वीं सदी की शुरुआत में स्पेनिश साम्राज्य से आजाद हुए बोलिविया के पास जीने और आगे बढ़ने के लिए सब कुछ था. कुदरती रिसोर्स भी और मैन पावर भी. लेकिन वो अटककर रह गया.
वजह?
बार-बार सत्ता पलट या फिर इसकी कोशिश.
दरअसल दक्षिण अमेरिका के इस पहाड़ी देश की कहानी फिल्म के उस नायक की तरह है, जो एक विलेन को हराकर आता है तो 10 और इंतजार में खड़े मिलते हैं. आजादी के बाद से यहां 200 से ज्यादा बार विद्रोह हो चुके. कहीं सेना ने सत्ता छीन ली, कहीं जनता ने विरोध कर सरकार गिराई, तो कई बार दलों में ही छीनाझपटी मच गई और सरकार ढह गई. सवाल ये है कि ऐसा क्यों हुआ? और क्या आज भी वही चक्र जारी है?
औपनिवेशिक दौर में यहां कुदरती भंडार भरपूर था. सोना-चांदी से लेकर कई खनिज मिलते. उनकी लूट के बाद स्पेन तो लौट गया. अब बच गया एक देश, जिसके पास न घर चलाने का तजुर्बा था, न पका-पकाया खाना कि पेट भरने के बाद कुछ आराम ही कर सके. यहीं से शुरू हुआ असंतोष. दल सत्ता के लिए आपस में लड़ते-भिड़ते रहे. कई दशक बीत गए, तब सेना ने शासन अपने हाथों में ले लिया. कुछ वक्त बाद इसकी लीडरशिप भी अनुशासित नहीं रही.
जनता जब सेना से बचने के लिए चुनाव की मांग करती, चुनाव होते, लेकिन फिर नेता आर्मी की कठपुतली बन जाते. एक और कारण था. यहां कोकोआ पौधे की खेती काफी होती थी. पूरे यूरोप से लेकर अमेरिका में भी इसकी काफी मांग रही. इसे पाने के लिए भी कई देश अंदरुनी राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे ताकि सस्ती कीमत पर उपजाऊ जमीनें लीज पर ले लें और व्यापार कर सकें.

बोलिविया ऊंचे पहाड़ों से बना देश है. कई दुर्गम जगहों पर सरकारों की पहुंच नहीं. ऐसे में वहां लोकल गुट एक्टिव होने लगे, जो जल्द ही इतने ताकतवर हो गए कि सरकारों को हिला सकें. यही होने लगा. जब भी नेताओं को अपना फायदे में कुछ कमी-बेसी लगती, वे सेंटर पर धावा बोल देते. ये जंग की तरह नहीं था, लेकिन राजनीति में महीने तरीके से नए गठबंधन बना पुराने को कमजोर करने जैसा था.
कू- अ स्टोरी ऑफ वायलेंस एंड रेजिस्टेंस इन बोलिविया नाम की किताब में डिटेल में बताया गया है कि देश ने इतनी बगावतों का सामना क्यों किया, और इसमें विदेशी ताकतों की कितनी भूमिका रही. यहां तख्तापलट इतनी आम बात हो गई थी जैसे मौसम बदलने पर इंफेक्शन फैलना. आम लोग भी काम-धाम किनारे रख सड़कों पर आने लगे. सेना-सरकार और जनता के बीच दूरी कम होती चली गई. कोई भी फैसला ले रहा था और कोई भी उसे बदल रहा था.
सबसे ताजा बगावत की बात करें तो इस देश में पिछले साल ही सैन्य तख्तापलट की कोशिश हुई थी, जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति लुइस आर्से ने नाकामयाब कर दिया. इसके बाद चुनाव तो हुए लेकिन स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. जल्द ही राष्ट्रपति पद के लिए एक बार फिर चुनाव हो सकता है. इस बीच वहां अस्थिरता और आर्थिक संकट गहरा रहा है. यहां तक कि क्राइम रेट भी बढ़ा, जो कि उसे दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में एक बनाता है.
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