आजादी मिलने के ठीक तीन महीने बाद नवम्बर 1947 में दिल्ली में मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन हुआ तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर चिंता व्यक्त की गई और संघ की गतिविधियों पर नजर रखने को कहा गया. संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को लिखे पत्र में तो प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने साफ-साफ लिखा कि हम संघ के खिलाफ जल्द ही एक्शन लेंगे. इसी तरह मद्रास के गृहमंत्री पी. सुब्बारायन को संघ पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया. हालांकि उन्हें ये भी लिखा कि, मुस्लिम लीग की बैठकों पर प्रतिबंध की जरूरत नहीं, मुसलमान आज डरे हुए हैं, सो बहुत मुश्किल है कि कोई समस्या खड़ी करें. 29 जनवरी को गांधीजी की हत्या से एक दिन पहले पंडित नेहरू ने माहौल ये कहकर एकदम गरमा दिया था कि, “मैं संघ को भारत की जमीन से जड़ से खत्म कर दूंगा”.
 
नेहरू के इसी बयान का सुबह-सुबह मद्रास के एक स्कूल में संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर ने जवाब दिया कि, ‘’संघ किसी की दया या कृपा से खड़ा नहीं हुआ सो किसी का विरोध हमारे काम को खत्म नहीं कर सकता. संघ के मिशन को ताकत किसी कागज पर लिखे रिजोल्यूशन से नहीं मिली और ना ही ये किसी के कागज पर दिए गए निर्देशों से खत्म होगी”.
 
दरअसल गुरु गोलवलकर को आभास हो रहा था कि संघ की अचानक बढ़ती ताकत और विभाजन के दौरान शरणार्थियों की मदद में सेना व स्थानीय प्रशासन के साथ संघ का सहयोग विरोधियों को रास नहीं आ रहा. कांग्रेस, कम्युनिस्ट और मुस्लिम उनके खिलाफ आ गए हैं. उस वक्त दंगे हो रहे थे और उसका ठीकरा भी संघ के सिर फोड़ा जा रहा था. उस पर अलग-अलग रूप से गांधीजी, नेहरू और सरदार पटेल के बयान आ गए थे, कि संघ को कांग्रेस में विलय कर लेना चाहिए. लेकिन संघ राजनीतिक होने के पक्ष में नहीं था.
 
'वयं पंचाधिकं शतम्' का संदेश
 
गुरु गोलवलकर ने तब आज के सरसंघचालक मोहन भागवत की तरह का सम्बोधन दिया था, कि भारत में रहने वाला हर कोई व्यक्ति अपना ही है. उन्होंने कहा था कि, “अगर हम शांति के साथ विचार करें तो पाएंगे कि मानव जीवन प्रयोगों से भरा पड़ा है. सफलता-असफलता, जीत-हार, खुशी-दुख सबके जीवन में है. किसी भी प्रयोग को ये देखने के लिए कि वो सफल होता है या नहीं पर्याप्त समय देना चाहिए, नहीं तो ये प्रयोग करने वाले के साथ अन्याय होगा. जो हो रहा है, वो ठीक हो रहा है या नहीं, इस पर ध्यान ना देते हुए हमें शांत रहना चाहिए और अपने काम को करते रहना चाहिए.  ये जरूरी है कि हम अपनी वर्तमान समस्याओं की जड़ में जाएं. अपने दिल में किसी के प्रति घृणा या प्रतिशोध की भावना ना पलने दें, और अपने तय लक्ष्य राष्ट्रनिर्माण के पथ पर धैर्यपूर्वक चलते रहें.. हमारे आसपास के लोग भले ही अच्छे या बुरे हो सकते हैं, आखिर वो हमारे समाज के लोग हैं, हमारे अपने राष्ट्र के. उनकी जो भी वैचारिक प्रतिबद्धता हो, उन्होंने भी अच्छे काम किए हैं, उन्होंने भी बलिदान दिए हैं. अगर हम उनके प्रति स्नेह, उदारता नहीं दिखाएंगे, तो किसको दिखाएंगे? सो कोई क्या कह रहा है, हमें उससे व्याकुल नहीं होना चाहिए”.

 
उन्होंने ये भी कहा कि, “आइए हम उन मतभेदों को दूर करें जो एक बार फिर अपना कुरूप सिर उठा रहे हैं. आइए हम एकता के आदर्श वाक्य - 'वयं पंचाधिकं शतम्' - को याद करें और एक समरूप राष्ट्र के निर्माण के लिए अपनी पूरी शक्ति लगाने का संकल्प लें. इस महान कार्य को पूरा करने के लिए अगर हमें अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़े तो हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए”.  
 
13 दिन तक शाखाएं नहीं लगाने का निर्देश
 
इस सम्बोधन के बावजूद गुरु गोलवलकर को नेहरू के बयान के अगले दिन यानी गांधी हत्या के दिन सुबह कड़ा बयान अपने विरोधियों को देना पड़ा तो उसकी वजह थी, कोई अस्तित्व मिटाने की बात कर रहा हो तो चुप रहना समझदारी नहीं हैं. लेकिन ये उनकी बदकिस्मती थी कि जब मद्रास में पंडित नेहरू के बयान पर बोलने के बाद गुरु गोलवलकर शाम को वहां के प्रमुख व्यक्तियों के साथ मिल रहे थे, तब एक बुरी खबर आई. गुरु गोलवलकर के हाथ में चाय का प्याला था, लेकिन तब तो वो एक घूंट भी नहीं ले पाए थे. किसी ने सूचना दी कि बिरला भवन में प्रार्थना सभा के दौरान किसी ने गांधीजी की गोली मारकर हत्या कर दी है. हर कोई स्तब्ध रह गया, गोलवलकर ने चाय का कप नीचे रख दिया और विचारों में खो गए. काफी देर बाद बस इतना बोले कि, “देश का ये कैसा दुर्भाग्य है”.
 
आगे का प्रवास रद्द कर वह फौरन नागपुर रवाना हो गए. निकलने से पहले उन्होंने शोक संदेश के तौर पर तीन टेलीग्राम भेजे, एक पंडित नेहरू को, दूसरा सरदार पटेल को और तीसरा गांधीजी के बेटे देवदास गांधी को. साथ ही निर्दैश दिया कि अगले 13 दिन तक देश में कोई भी शाखा नहीं लगाई जाएगी. नागपुर पहुंचते ही उन्होंने फौरन पंडित नेहरू और सरदार पटेल को एक एक पत्र भी लिखा.
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उन्होंने मीडिया को भी एक संदेश जारी किया, जिसमें गांधीजी की हत्या पर शोक व्यक्त करने के साथ-साथ संघ के स्वयंसेवकों को किसी भी परिस्थिति में संयम बरतने की सलाह दी गई थी. लेकिन किसी भी मीडिया ने इसको नहीं छापा. संकेत साफ नजर आ रहे थे. इधर सूचनाएं भी पूरे देश भर से मिलना शुरू हो गई थीं कि संघ विरोधी सभी शक्तियां एकजुट होकर लोगों की भावनाएं संघ के खिलाफ मोड़ने में जुट गई हैं और सरकार का भी इसमें सहयोग मिला. महाराष्ट्र में तो इस विरोध को ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण में बदल दिया गया था.
 
संघ के दोनों सरसंघचालकों पर ‘हमला’
 
देश भर में स्वयंसेवक निशाने पर थे. 1 फरवरी को रेशमीबाग में डॉ हेडगेवार के समाधि स्थल पर तोड़फोड़ हुई. रात होते ही संघ प्रमुख गोलवलकर के आवास को हथियांर बंद भीड़ ने घेर लिया. उनके आवास पर पत्थरबाजी होने लगी. अंदर बाला साहब देवरस (तीसरे सरसंघचालक) अपने कुछ साथियों के साथ मौजूद थे, लेकिन गुरु गोलवलकर ने उनसे भीड़ के खिलाफ कदम उठाने से मना कर दिया और कहा कि, “मैं नहीं चाहता कि मेरी सुरक्षा के नाम पर मेरे ही देशवासियों का लहू मेरे घर के सामने बहाया जाए. किसी को मेरी सुरक्षा की जरूरत नहीं है, आप घर जा सकते हैं.”
 
इस हमले की सूचना तब तक मध्य प्रांत के गृहमंत्री डीपी मिश्र तक पहुंच गई. वो अपनी किताब ‘द नेहरू एपॉक: फ्रॉम डेमोक्रेसी टू मोनोक्रेसी’ में लिखते हैं कि गुरु गोवलकर और 40 स्वयंसेवकों की जान बचाने के लिए मैंने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया था. जबकि भिषिकर की किताब ‘श्री गुरुजी’ ये भी बताती है कि दिन में पुलिस वहां तैनात की गई थी, लेकिन शाम को वहां से वो लोग वापस चले गए. इधर गुरूजी ने चिटनिस पार्क में गांधीजी के लिए रखी गई एक शोकसभा को भी सम्बोधित किया. उसके बाद वो लौट आए, तो स्वयंसेवकों ने उन्हें सलाह दी कि आप यहां मत रुकिए, दूसरी किसी सुरक्षित जगह पर चले जाइए, लेकिन गुरु गोलवलकर उनके प्रस्ताव को नकारकर और उन्हें घर जाने को कहकर संध्या के लिए अंदर चले गए. स्वयंसेवक रुके रहे और फिर भीड़ आ गई. आधी रात को पुलिस आई और उन्हें वारंट दिखाकर गिरफ्तार करके साथ ले गई.
 
जान बचाने की कहकर ले गए और लगा दी ‘दफा 302’
डीपी मिश्र ने दावा किया था कि गुरु गोलवलकर को ऐहतियातन उनकी जान बचाने के लिए थाने ले जाने का आदेश उन्होंने दिया था, लेकिन वांरट में उन पर गाधीजी की हत्या का आरोप था. उसे पढ़कर गोलवलकर के चेहरे पर एक हलकी मुस्कराहट आ गई. पुलिस के साथ जाते वक्त वो मौजूद संघ स्वयंसेवकों को कहकर गए कि. “संदेह के बादल जल्दी हट जाएंगे और हम इस कलंक से मुक्त हो जाएंगे.. तब तक धैर्य बनाए रखें..”.  संघ प्रमुख पर हत्या की धारा 302 और हत्या की साजिश रचने के लिए धारा 120बी लगाई गई थी. तब भैयाजी दाणी का एक लाइन का ही टेलीग्राम संदेश सभी शाखाओं को गया था, “Guruji interned, be calm at all costs.”
 
अगले दिन यानी 2 फरवरी को एक अध्यादेश सरकार ने जारी किया, जिसके तहत संघ की सारी गतिविधियां गैरकानूनी घोषित कर दी गईं. 2 दिन बाद यानी 4 फरवरी को संघ पर आधिकारिक प्रतिबंध की भी घोषणा कर दी गई. उसके साथ ही देश भर में संघ के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां भी शुरू कर दी गईं. शुरूआती दो-तीन दिन में ही 30 हजार से अधिक स्वयंसेवक गिरफ्तार किए जा चुके थे.

 
5 फरवरी 1948 को गुरु गोलवलकर से मिलने उनके वकील मित्र दत्तोपंत देशपांडे जेल पहुंचे तो उन्होंने एक बयान उनके हाथ भेजा, ताकि मीडिया में छप सके. इस बयान में गुरु गोलवलकर ने लिखा था कि संघ हमेशा से ही कानून के शासन को मानता रहा है और कानून के दायरे में ही काम करता रहा है. अब जबकि सरकार ने संघ को गैरकानूनी घोषित कर दिया है, इसकी कार्यकारिणी को संघ पर प्रतिबंध रहने तक विघटित करना ही ठीक रहेगा. साथ ही हम संघ पर लगे सारे आरोपों को नकारते हैं.
 
दिलचस्प बात है कि गुरु गोलवलकर के इस बयान को सबसे पहले 6 फरवरी के अंक में किसी हिंदुस्तानी अखबार ने नहीं बल्कि पाकिस्तान के अखबार ‘डॉन’ ने छापा. दरअसल सारे वायर नागपुर में ही सरकार ने रोक लिए, फिर भी बयान को अलग अलग तरीकों से लोगों तक पहुंचाया गया, कुछ अखबारों ने यहां अगले दिन छापा.
 
जेल में डीआईजी की गोलवलकर से फिल्मी मुलाकात
ये मुलाकात वाकई में फिल्मी थी. इसमें स्टाइल भी थी, और डायलॉग्स भी. डीआईजी हीरांचद जैन ने जेल पहुंचकर जेलर को उनके सामने गुरु गोलवलकर को लाने का आदेश दिया. डीआईजी जैन काफी मोटा आदमी थी, उसने सोचा कि इतना बड़ा आरोप लगा है तो गुरु गोलवलकर सदमे में होंगे. उनके आने से पहले उसने मेज पर पैर ऱखा और स्टाइल में सिगरेट फूंकने लगा. गोलवलकर के आते ही तंज मारने के अंदाज में ऊपर से नीचे तक देखकर बोला, “ओह...तो तुम हो गुरु गोलवलकर...सरसंघचालक...तुम तो बड़े पतले और कमजोर दिखते हो”. गोलवलकर ने फौरन नहले पर दहला मारा, “डॉ हेडगेवार ने सरसंघचालक के लिए किसी साइज की आवश्यकता के बारे में नहीं सोचा था, नहीं तो तुम्हें या किसी भैंस को सरसंघचालक बना देते”. गुरु गोलवलकर के तेवर देखते ही डीआईजी को फौरन ध्यान आ गया कि वो किससे बात कर रहा था, जिसके पीछे करोड़ों स्वयंसेवक थे.
 
उसने फौरन जेलर को आदेश दिया कि, जाओ गुरुजी के लिए एक कुर्सी लाओ. फिर वो गांधी हत्या को लेकर सवाल पूछने लगा, जिनके जवाब में गोलवलकर ने कह दिया कि वो अदालत में जवाब देंगे. ये भी कहा कि सरदार पटेल और पंडित नेहरू को भी कोर्ट आना होगा. तब तक सरकार भी समझ चुकी थी कि संघ के खिलाफ उनके पास कुछ नहीं है और 3 दिन बाद ही गुरु गोलवलकर के खिलाफ धारा 302, 120बी आदि हटा दी गईं. लेकिन उन पर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट लगा दिया गया. ताकि बिना मुकदमा चलाए जेल में रखा जा सके.
 
देश भर में स्वयंसेवक खुद को जेल में रखने के खिलाफ अदालतों में जाने लगे, उनको रिहाई मिलने लगी. कई केसों में तो सरकार तक पर अवैध गिरफ्तारियों के लिए जुर्माने होने लगे. जिसे लेकर 4 मई को सरदार पटेल ने खुद नेहरू को पत्र लिखकर ये बात बताई कि यूपी और बॉम्बे प्रांत में ऐसे कई लोगों को अदालतें ना केवल रिहा कर चुकी हैं, बल्कि हमे अदालती खर्च तक देने को कहा गया है, हम पर नागरिक स्वतंत्रता के हनन का आरोप लगाया जा रहा है.
सरदार पटेल की संघ को क्लीन चिट
हालांकि 27 फरवरी का सरदार पटेल का पंडित नेहरू को पत्र ये साफ कर चुका था कि गांधीजी की हत्या में संघ का कोई हाथ नहीं है. इसमें वो लिखते हैं कि, इसमें कोई शक नहीं कि आरएसएस का इस हत्याकांड से कोई सम्बंध नहीं है. जांच में पता चला है कि ये षडयंत्र सिर्फ 10 लोगों तक सीमित था. जिनमें से से 2 को छोड़कर बाकी सब पकड़े जा चुके हैं. गांधी हत्याकांड को लेकर हमें गुमनाम सूचनाएं मिलती हैं, जिनमें से 90 प्रतिशत झूठी निकलती हैं, लेकिन उन सूचनाओं के आधार पर हम जिन संघ स्वयंसेवकों की गिरफ्तारियां करते हैं, उनको लेकर केन्द्र व राज्य सरकारों पर आरोप लगता कि हम निर्दोषों को जेल में ठूंस रहे हैं”. बावजूद इसके वर्धा में पंडित नेहरू ने बयान दिया कि, “महात्मा गांधी की हत्या आरएसएस ने ही की है. ये हत्या संघ की विचारधारा का ही परिणाम है. इस संघ का मुकाबला करने के लिए मैं सत्ता छोड़कर मैदान में आने के लिए तैयार हूं”.  
 
गोलवलकर पर एनएसए की अवधि 5-6 अगस्त में खत्म हो रही थी. पटेल ने उसको आगे नहीं बढ़ाया और गुरु गोलवलकर बाहर आ गए. उन पर कई शर्तें थोप दी गई थीं कि नागपुर से बाहर नहीं जाएंगे, प्रेस को कोई बयान नहीं देगें. कोई सभा में भाषण नहीं देंगे आदि. लेकिन संघ पर से प्रतिबंध हटाने की लड़ाई अभी लंबी थी.
पिछली कहानी: RSS के पहले चार प्रचारकों की कहानी, हेडगेवार के ‘अक्षर शत्रु’ ने की थी अगुवाई
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