आज़ादी से ‘जंगलराज’ तक: बिहार में लोकतंत्र के सफर और 'फुटानीबाज़ों' के उदय की कहानी

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Bihar ke Futanibaaz: अंग्रेजों की गुलामी के लंबे दौर के बाद आखिरकार देश आज़ाद हो चुका था. राजे रजवाड़ों के दिन लद चुके थे. लोकतंत्र का सपना नेताओं से लेकर जनता की आंखों में तैर रहा था. एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें शासक और जनता के बीच का फर्क मिटने वाला था. इसके लिए ज़रूरी था चुनाव. और चुनाव कराने के लिए ज़रूरी थी मतदाता सूची. पर तब ना मतदाता सूची थी, ना पहचान पत्र और ना ही वोटरों का कोई रिकार्ड. आज़ादी अपने साथ बटवारा भी लेकर आई थी. लाखों लोग विस्थापित थे. ना कोई पहचान पत्र, ना कोई दस्तावेज़. सबसे बड़ा मसला तो ये था कि चुनाव में वोट कौन डालेगा? क्योंकि अंग्रेज़ों ने गुलाम भारत में वोट का अधिकार हर किसी को नहीं दिया था. 

वो गुलामी का दौर ऐसा था कि धर्म, शिक्षा, संपत्ति और लिंग के आधार पर लोगों को वोट डालने से वंचित रखा गया था. तब वोटर लिस्ट में महिलाओं के नाम तक नहीं लिखे जाते थे. बल्कि तब महिलाओं के नाम के आगे बस फ्लां की पत्नी और फ्लां की बेटी लिखा जाता था. इन सारी मुश्किलों के बीच आज़ाद भारत के पहले चुनाव आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश में पहला चुनाव कराना था. और ये ज़िम्मेदारी सौंपी गई देश के पहले चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन को. 

चुनाव आयोग को पहला चुनाव कराने के लिए शून्य से शुरूआत करनी थी. वक्त लगा पर तैयारी जारी रही. तय हुआ कि आज़ाद भरत में हर व्यस्क को वोट का अधिकार होगा. महिलाएं किसी की पत्नी या बेटी के नाम पर नहीं अपने नाम से वोट डालेंगी. आज़ादी के बाद अगले चार साल तक देश को पहले चुनाव का इंतज़ार करना पड़ा और फिर आखिरकार वो दिन आ ही गया. 

25 अक्टूबर 1951 
यही वो ऐतिहासिक तारीख थी जब आज़ाद हिंदुस्तान के करीब एक अरब हिंदुस्तानियों ने पहली बार खुद के लिए वोट डाला. तब पेटियों में सिर्फ वोट नहीं गिरे थे. बल्कि गिरी थी दो सौ साल की बेबसी. टूटी थी पहचान की बेड़ियां. पहली बार किसी की बीवी या बेटी नहीं बल्कि सुनीता, सुशीला, रुकमणि, रुखसाना, मरियम वोट डाल रही थीं. देश का पहला चुनाव बेहद सादगी के साथ हुआ था. तब चुनावी प्रचार डुगडुगी बजा कर किया जाता था और नेता बैलगाड़ी और साइकिल पर बैठ कर चुनावी प्रचार किया करते थे. 

24 फरवरी 1952
लोकसभा के लिए हुए इस पहले चुनाव के अगले ही साल चार फरवरी से 24 फरवरी 1952 के बीच बिहार विधानसभा की 276 सीटों के लिए पहली बार चुनाव हुआ. पहले चुनाव की कामयाबी ने विंस्टन चर्चिल जैसे बड़बोले नेताओं के उन दंभभरे बयानों का जबाव दे दिया कि भारत में लोकतंत्र कभी पनप नहीं सकता. ये हिन्दुस्तान की जनता कि ताकत है और देश को संविधान देने वाले नेताओं की सोच का नतीजा है कि लोकतंत्र आज भी कायम है. 

लेकिन जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा की चुनावी व्यवस्था कैसे पांच साल बाद ही बाहुबलियों का, बाहुबलियों के लिए, बाहुबलियों के द्वारा बदलती चली गई? इसे जानने के लिए आपको हम लेकर चलते हैं बिहार, जहां की वैशाली से दुनिया को पहली गणतंत्र वाली शासन व्यस्था का संदेश मिला था.   

अब साल 1957 आ चुका था. देश में दूसरी बार चुनाव होना था. तब पूरे देश का चुनाव एक साथ हुआ करता था. 1957 में बिहार विधानसभा के लिए दूसरी बार चुनाव होना था. और यही वो साल था जिसने पहली बार राजनीति में मसल पॉवर, बूथ कैप्चरिंग. वोटरों को धमकाने और जबरन चुनाव जीतने की ऐसी बुनियाद रखी, जिससे आज 68 साल बाद भी बिहार उबर नहीं पाया है. उलटे इस मामले में आगे ही बढ़ता गया.

कौन हैं फुटानीबाज़?
बिहार में फुटानीबाज़ उन्हें कहते हैं, जो खुद को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं. रौब झाड़ते हैं. दिखावा करते हैं. डींगे मारते हैं या चुभने वाली बातें करते हैं. यानी यहां का हर अपराधी और बाहुबली फुटानीबाज़ है.

बिहार की सरज़मीन जीरादेई में मौजूद है देश के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद का घर.  गांधी जी के बेहद करीबी और चंपारण आंदोलन में गांधी जी के साथ-साथ रहे राजेंद्र बाबू ने सीधा और साफ रास्ता पकड़ा और पाक-साफ राजनीति करते हुए रेलवे स्टेशन से दिल्ली में मौजूीद राष्ट्रपति भवन तक का सफर तय किया. देश के पहले राष्ट्रपति बन कर.

जीरादेई में राजेंद्र बाबू के उसी घर से फकत दो किलोमीटर की दूरी पर एक खंडहर कभी घर हुआ करता था. उस घर का एक लड़का भी इसी रेलवे स्टेशन से दिल्ली पहुंचता है. पर उसे राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी. इसलिए ना उसे विधानसभा चाहिए था, ना लोकसभा और ना ही राष्ट्रपति भवन वो तो इन सबको बेचने के लिए घर से निकला था. उसने बेचा भी. संसद भवन तब बेच दिया, जब संसद भवन में तमाम सांसद बैठे हुए थे और लोकसभा की कार्रवई चल रही थी. अपने पड़ोसी राजेंद्र बाबू के सरकारी घर राष्ट्रपति भवन को भी उसने बेच डाला था. बिहार के इसी जीरादेई से निकले उस लड़के का नाम नटवर लाल था.

राजेंद्र बाबू और नटवर लाल के घर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक घर उस डॉन का है, जिसने विधानसभा या लोकसभा किसी को नहीं बख्शा. फुटानीबाज़ी ऐसी कि जेल से ही चुनाव जीत जाता. वो जेल में अपना दरबार लगाया करता. नाम था शहाबुद्दीन.

बिहार में राजनीति में अपराधियों या अपराधियों की राजनीति को समझने के लिए इससे बेहतर मिसाल और इससे अच्छी प्रयोगशाला कोई और हो ही नहीं सकती. असल में बिहार में कैसे राजनीति और अपराध का इस कदर घालमेल हो गया कि नेता और अपराधी एक ही सिक्के के दो पहलू से दिखने लगे. व्यस्था से मजबूर जनता को ये क्यों लगने लगा कि जो नेता हैं वही अपराधी हैं और जो अपराधी हैं वही नेता बनने का योग्य उम्मीदवार. ऐसा नहीं है कि ऐसा सिर्फ बिहार में होता है पर जिस तरह ये बिहार में होता है वैसा देश में शायद ही कहीं दिखने को मिलता है. 

अपराधियों के लिए बिहार में राजनीति एक ऐसा रास्ता है, जो धन के साथ ताकत भी दिलाता है. वहां राजनीति एक इंडस्ट्री है. ये इंडस्ट्री अपराधियों को पैसा भी दिलाती है, सरकारी सुविधएं भी और कानून के शिकंजे से बच निकलने की गारंटी भी. इसीलिए बिहार चुनाव में फुटानीबाज़ हमेशा जरूरी होते हैं. नेताओं और राजनीतिक पार्टियों को हमेशा इनकी ज़रूरत पड़ती है. कभी नेताओं की चुनावी जीत का साधन रहे ये फुटानीबाज़ आगे चल कर खुद ही विधानसभा और लोकसभा तक में पहुंच गए. पर ये सब हुआ कैसे? तो इसे समझने के लिए आपको लेकर चलते हैं पश्चिमी चंपारण. 

वही चंपारण, जिसके पूर्वी इलाके से महात्मा गांधी ने सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धांतों का हिन्दुस्तान की जमीन पर पहला प्रयोग किया था. साल 1917 में गांधी जी की अगुआई में बिहार के इसी चंपारण जिले में तिनकठिया प्रथा खत्म करने के लिए चंपारण सत्याग्रह शुरू हुआ था. असल में तिनकठिया प्रथा के तहत तब किसानों को अपनी ज़मीन के एक तिहाई हिस्से पर नील की खेती करने के लिए मजबूर किया जाता था. गांधी जी के यहां आने के बाद अंग्रेजों को झुकना पड़ा और 1918 में इस प्रथा को खत्म कर दिया गया. इसी एक आंदोलन की कामयाबी ने आज़ादी के लिए आगे के आंदोलन को एक रास्ता दिखाया. यही वो आंदोलन था, जिसकी नींव पर आजादी मिली. जनता को इंसान होने का संवैधानिक अधिकार मिला.

मगर इसे इलाके का इतिहास कहेंगे या फिर इत्तेफाक. आज ना तो यहां गांधी हैं ना ही अहिंसा और ना कोई आंदोलन. सत्तर और अस्सी का दशक आते-आते यहां गांधी की जगह गन ने ले ली, अहिंसा की जगह हिंसा ने और आंदोलन की जगह अपराध ने. बिहार की राजधानी पटना से करीब ढाई सौ किलोमीटर दूर ये इलाका तब बारूद के ढेर पर बैठा था. यहां खेतों में गन्ने की बजाए गन और तवे पर रोटियों के बजाए गोलियां सेंकी जाती थी. इस इलाके में उतने हाथ नहीं जितने हथियार थे. इतने हथियार कि अगर एक साथ पूरा गांव सड़क पर उतर आए और एक साथ ट्रिगर दबा दे तो मीलों तक गोलियों की गूंज के साथ पल भर में सैकड़ों लाशें बिछ जाएं. किसी एक इलाके में मौत का इतना बड़ा ज़खीरा पूरे हिंदुस्तान में शायद ही किसी और इलाके में तब रहा होगा.

वो अस्सी का ही दशक था, जब बिहार में राजनीति खतरनाक करवट ले रही थी. जंगल, पहाड़, बीहड़ और दियारा के इलाकों में ताकतवर कमजोरों की ज़मीन और उनकी खेती लूट रहे थे. और उन्हें पनाह दे रहे थे वो नेता जिन्हें जनता ने लोकतंत्र की पहरेदारी सौंपी थी. गंगा - गंडक से घिरे दियारा इलाके में धीरे-धीरे बदले की कहानी शुरू हुई. जुल्म करने वाले और जुल्म सहने वाले सभी ने हथियार उठा लिए. मिनी चंबल कहे जाने वाले पश्चिम चंपारण के इस इलाके में कोई बागी बन कर डकैती डालने लगा तो कईयों ने डकैतों का सामने करने के लिए हथियार उठा लिए. 

सियासत का पहिया कुछ ऐसा घूम रहा था कि हथियार उठाने वाले दोनों हाथों को पता नहीं था कि कब और कैसे वो लोकतंत्र के पहरेदारों की मुट्ठी में कैद होते चले गए. लेकिन नेताओं का साथ पाकर बागियों का बल बढ़ गया क्योंकि कई नेताओं ने जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी भूला दी और और चुनाव जीतने के लिए डकैतों का इस्तेमाल करने लगे. आगे चल कर नेताओं की खिदमत करने वाले कई डाकू जनता के मुख्तार बन गए.  

खेती की ज़मीन और फसल की लूट से बात आगे बढ़ते हुए अब किडनैपिंग, रंगदारी, जबरन वसूली, लूट और डाकाज़नी तक जा पहुंची थी. पश्चिम चंपारण  के अलावा रोहतास का पहाड़ी इलाका, कैमूर, मुंगेर, भागलपुर, बेगूसराय के गंगा से घिरे दियारा के इलाके डाकुओं के पनाह गाह बनते जा रहे थे. एक से बढ़ कर डाकुओं के नामों की यहां तूती बोला करती थी. 1970 से 1990 के दरम्यान दस हजार से ज्यादा लोग मौत के घाट उतारे जा चुके थे.

इसी चंपारण की ज़मीन ने आज़ादी के बाद अस्सी के दशक में नेताओं को चुनाव जीतने का एक रास्ता दिखाया. वो रास्ता था फुटानीबाजों यानी अपराधियों को हथियार बना कर चुनाव जीतने का. ये वो दौर था जब पहली बार बिहार में थोक के हिसाब से डाकुओं को चुनावी मैदान में नेता अपने साथ लेकर उतरे थे. बंदूक और बैलेट का खेल यहीं से शुरू हुआ था. 

तब चुनाव में नेताओं के कहने पर डाकू सिर्फ बूथ नहीं लूटा करते थे बल्कि बाकायदा खुला खत यानी ओपेन लेटर लिख कर गांव-गांव में बटवाते थे. इस लेटर में हुक्म होता था कि किस पार्टी के किस उम्मीदवार को इस बार वोट देना है. लेटर के नीचे किसी डाकू का नाम नहीं लिखा होता था बल्कि बिहार सरकार लिखा होता था. क्योंकि वे डाकू अपने आपको ही बिहार सरकार मानते थे. तब चुनाव में हुक्म के हिसाब से उम्मीदवार जीत गया तब तो ठीक. पर गलती से कहीं हार गया तो फिर गांव के गांव को डाकू अपना निशाना बनाते थे. कत्लेआम करते थे, लोगों को किडनैप कर लेते थे.

राजनीति और अपराध की इस इलाके में ऐसी जुगलबंदी हो चुकी थी कि सिस्टम हार चुका था. कानून-व्यवस्था नाम की चिड़िया यहां की ज़मीन और आसमान को खाली कर चुकी थी. शाम छोड़िए दोपहर के शाम में तब्दील होने से पहले ही लोग घरों में खुद को बंद कर लेते थे. इसी जंगलराज के बीच 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी चुनावी प्रचार के लिए जब यहां पहुंचे तब भीड़ ने आवाज़ा लगाई थी- हम जीना चाहते हैं. हिंसा हमें मार रही है. हमें भय से बचाएं. तब राजीव गांधी ने लोगों से वादा किया था कि नई सरकार बनते ही इस पूरे ज़िले को भयमुक्त कर देंगे. इसी के बाद इस मिनी चंबल को डाकुओं और अपराधियों से मुक्त करने के लिए ऑपरेशन ब्लैक पैंथर चलाया गया.

इस ऑपरेशन के शुरू होने के बाद धीरे-धीरे मिनी चंबल की तस्वीरें बदलनी शुरू हुई. बहुत से डाकू मारे गए. बहुत से यहां से लगती नेपाल सीमा में जा कर छुप गए. कुछ ने खादी पहन कर पहले से खादी पहने नेताओं का दामन थाम लिया. वैसे भी तब तक दौर बदल चुका था. किडनैपिंग और फिरौती का शहरीकरण हो चुका था. अब पटना समेत बिहार के बाकी छोटे-बड़े शहरों के अपराधियों ने डाकुओं से ये काम अपने हाथों ले लिय था.

70 के खत्म होते-होते और अस्सी के शुरूआत का लगभग ये वही दौर था जब बिहार में चुनावी सिय़ासत ने यहां के खेतों  की मिट्टी में खून मिलाने का काम भी किया. अमीरी, गरीबी, ऊंच-नीच, ज़ात-पात की ऐसी लकीर खींच दी गई कि जगह-जगह फिज़ाओं में बदले की हवा घुल गई. इस नाइंसाफी ने एक तरफ  माओवादियों को दलितों और भूमिहीनों का मसीहा बनने का मौका दे दिया तो दूसरी तरफ ऊंची जाति के ज़मीनदारों को इस बगावत को कुचलने का. नतीजा ये हुआ कि आने वाले वक्त में बिहार ने अनगिनत नरसंहार देखे. सामूहिक हत्याकांड की झड़ी सी लग गई थी. बारा, बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, सेनारी, मियांपुर. हर घटना जैसे एक-दूसरे का जवाब थीं. बदला था. यह जवाब अक्सर रात के अंधेरे में गोलियों से दिया जाता था और बिहार की जमीन जहां तहां खून से लाल होती जा रही थी.

बेलछी नरसंहार 1977
बिहार की राजधानी पटना से करीब 60 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा गांव था बेलछी. 17 मई 1977 की रात गांव में कयामत उतर आई थी. पूरा गांव जब गहरी नींद में सो रहा था, तभी कुछ दबंग लोग हथियारों के साथ उस गांव में दाखिल हो गए. उन्होंने चुन चुनकर कुछ घरों में दस्तक दी और लोगों को बाहर खींच लिया. हमलावरों ने गांव के 11 दलित मजदूरों को ज़िंदा आग के हवाले कर दिया था. अगली सुबह गांव में राख हो चुके इंसानों की अधजली लाशें पड़ी थीं. तब इस नरसंहार ने पूरे देश को सन्न कर दिया था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद मौके पर पहुंची थीं. ये नरसंहार कुर्मी जमींदारों और दलित खेतिहर मजदूरों के बीच ज़मीनी झगड़े का नतीजा था. यही झगड़ा जातीय नफरत में बदल गया. इस एक नरसंहार ने ही बिहार में जाति बनाम जाति की कहानी शुरू कर दी थी.

दलेलचक-बघौरा नरसंहार 1987
वो 10 जून 1987 की रात थी. बिहार के गया जिले के बघौरा गांव में बंदूकों से लैस माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) के हथियारबंद दस्ते ने चुन-चुन कर राजपूतों के घरों से उन्हें बाहर निकाला, खेतों में ले गए और उन्हें गोली मार दी. इतना ही नहीं गोली मारने के बाद उनके जिस्म के हिस्से को काटा. औरतों और बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया. बाद में जब लाशों की गिनती हुई तो ये गिनती 42 लाशों पर जाकर खत्म हुई. जाने से पहले हमलावर एलान कर गए ते कि अब हर ज़ुल्म का जवाब हथियार से मिलेगा.

रणवीर सेना का जन्म 1994
1990 का दशक आते-आते बिहार के कई गांव लाल झंडों से पट चुके थे. नक्सली संगठन MCC और PWG गरीब, दलित और पिछड़े तबके में अपनी पैठ बना चुके थे. नौजवानों पर खास तौर पर इसका असर हो रहा था. नतीजतन भूमिहार और राजपूत जमींदार अब खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे थे. उसी डर और खौफ के चलते उस दौर में भूमिहार किसानों ने अपनी एक निजी सेना बनाई. नाम रखा रणवीर सेना.  ये नाम दरअसल रणवीर बाबा से लिया गया था जो भूमिहार समुदाय के लोक देवता माने जाते हैं. रणवीर सेना के गठन का मकसद था माओवादियों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना. कहने को ये सेना रक्षा के लिए बनाई गई थी लेकिन जल्द ही रणवीर सेना खुद आतंक की पहचान बन गई. इनका एक ही नारा था जो हमारे खिलाफ है, वह मारा जाएगा. रणवीर सेना के जन्म के साथ ही अब खेल और खूनी हो चुका था.

बारा नरसंहार 1992
रणवीर सेना बन जाने के बाद माओवादी ठान चुके थे कि अब ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा. 12 और 13 फरवरी 1992 की रात थी. बारा गांव में सन्नाटा पसरा था, तभी MCC के करीब 100 नक्सलियों ने बारा गांव को चारों तरफ से घेर लिया. फिर वही हुआ जो पहले भी हो चुका था. लोगों को घरों से निकाला गया. बाहर खींचा गया. उनके गले रेत डाले गए. इस नरसंराहर में कुल 40 भूमिहारों का कत्ल-ए-आम हुआ था.

बथानी टोला नरसंहार 1996
बारा नरसंहार के चार साल बाद रणवीर सेना ने वही भयानक कहानी दोहराई. भोजपुर जिले के बथानी टोला गांव में उस रात कयामत उतरी थी. 11 जुलाई 1996 की रात लगभग 200 हथियारबंद लोगों ने गांव बथानी टोला पर धावा बोल दिया. 21 लोगों को घरों से निकाल-निकाल कर गोली मारी गई. ये रणवीर सेना के बदले की पहली किश्त थी.

लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार 1997
रणवीर सेना और माओवादियों के बीच दुश्मनी की खाई और गहरी होती जा रही थी. सरकार कामोश बैठी थी. एक दिसंबर 1997 की रात रणवीर सेना के हमलावरों बथानी टोला गांव पर धावा बोला था. ये बिहार के सबसे बड़े खूनी नरसंहार में से एक था. कुल 58 लोगों का कत्ले-आम हुआ और घरों को आग लगा दी गई. इस नरसंहार को बाद राष्ट्रीय शर्म कहा गया था.

शंकर बिगहा नरसंहार 1999
बिहार के जहानाबाद में 25 जनवरी 1999 की रात शंकर बिगहा के गांववाले जब गहरी नींद में सो रहे थे. तभी अचानक गोलियों की आवाज से पूरा गांव दहल उठा. रणवीर सेना ने पिर अपना खूनी खेल खेला. इस नरसंहार में 22 दलितों को मार डाला गया था.

सेनारी नरसंहार 1999
शंकर बिगहा के जख्म अभी भरे भी नहीं थे कि फिर एक नरसंहार हो गया. 18 मार्च 1999 की रात माओवादियों ने सेनारी गांव में धावा बोल कर 40 लोगों को एक साथ कतार में खड़़ा किया और उनका गला काट दिया.

मियांपुर नरसंहार 2000
एमसीसी और रणवीर सेना की खूनी जंग को 23 साल हो चुके थे. बिहार के औरंगाबाद के मियाांपुर गांव में 16 जून 2000 को रणवीर सेना ने फिर धाना बोला. इस बार भी घरों से लोगों को खींच-खींच कर कतार में खड़ा किया गया. फिर ठीक माओवादियों के ही अंदाज़ में हरेक का गला काट कर उन्हें मार दिया गया. उस दिन मियांपुर में कुल 35 लाशें गिरी थीं.

बिहार अब एक साथ कई मोर्चों पर अपराध से घिरा था. नेताओं की उदासीनता अपराधियों के हौसले लगातार बढ़ा रही थी. अब उनमें इतना हौसला आ चुका थाा कि सीधे नेताओं से ही सौदा करना शुरू कर चुके थे. सौदा पावर के बदले पावर का. यानी चुनाव में नेता अपराधियों के पावर का इस्तामल करें और बदले में सियासतदान उन्हें कानून के शिकंजे से बचने की ताकत दें. पश्चिमी चंपारण के डकैतों और जातीय नरसंहार के बाद अभी भी बिहार को बहुत कुछ देखना बाकी थी.

कहानी यहां भी खत्म हो जाती तो भी शायद बहुत कुछ नहीं बिगड़ता. क्योंकि अस्सी के दौर के आपराधिक पृष्ठभूमि वाले वैसे नेताओं का दौर बहुत लंबा नहीं चला. लेकिन आगे चल कर जो कुछ भी हुआ उसने अपराध का ऐसा लोकतंत्रीकरण किया कि आजादी के आंदोलन से लेकर जेपी आंदोलन तक अगुआ रहा बिहार बदनाम हो गया. वो भी अपने ही कुछ नेताओं के नाम से. उनके काम से. जिन्हें हम कह रहे हैं फुटानीबाज.

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