टूरिस्टों का 'जन्नत' खतरे में? हिमाचल की वादियों पर क्यों टूट रहा है प्रकृति का कहर?

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अगर आप घूमने-फिरने के शौक़ीन हैं और छुट्टियों में पहाड़ों की ठंडी वादियों का मज़ा लेना चाहते हैं, तो हिमाचल प्रदेश शायद आपकी पहली पसंद होगी.देवभूमि कहलाने वाला यह राज्य कभी सैलानियों के लिए स्वर्ग माना जाता था. बर्फ से ढके पहाड़, झरनों की कलकल, और हरे-भरे जंगलों ने इसे देश-विदेश के लाखों यात्रियों का सपना बना दिया था.

लेकिन अब वही हिमाचल खतरे में है. यहां बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं इतनी बढ़ गई हैं कि सफ़र का रोमांच डर में बदलता जा रहा है. जून से सितंबर तक के कुछ ही महीनों में 500 से ज़्यादा भूस्खलन हुए, जिनमें 300 से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई और करोड़ों की संपत्ति मिट्टी में समा गई. जो जगह कभी सुकून और राहत का ठिकाना थी, वहां अब इतना कहर क्यों टूट रहा है? 

बार-बार क्यों टूट रही हैं पहाड़ियां?

विशेषज्ञों का कहना है कि हिमाचल का आधा भूभाग हमेशा से ही खतरों से घिरा रहा है. आईआईटी-रोपड़ और वाडिया भूकंप विज्ञान संस्थान ने कई बार आगाह किया है कि यहां भूस्खलन, बाढ़, हिमस्खलन और भूकंप का खतरा बना रहता है. आईआईटी-रोपड़ की 2023 की रिपोर्ट में बताया गया था कि 1600 मीटर तक की ऊंचाई वाले ढलानों पर सबसे ज्यादा खतरा है. वहीं, 3000 मीटर से ऊपर के खड़े पहाड़ तो किसी भी वक्त तबाही मचा सकते हैं. कांगड़ा, कुल्लू, मंडी और चंबा की घाटियां भूस्खलन और बाढ़ की मार झेल रही हैं, जबकि किन्नौर और लाहौल-स्पीति इलाका लगातार बढ़ते हिमस्खलनों के कारण सबसे ज़्यादा खतरनाक ज़ोन माना जाने लगा है.

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इसका जिम्मेदार कौन?

बदलते मौसम और जलवायु परिवर्तन तो दोषी हैं ही, लेकिन सबसे बड़ी गलती इंसानों की है. दरअसल वनों की अंधाधुंध कटाई, अस्थिर ढलानों पर होटल, इमारतें, चार-लेन सड़कों और बिजली परियोजनाओं ने पहाड़ों की सांसें थाम दी हैं. इस विषय पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने साफ कहा था कि अनियंत्रित शहरीकरण और बेतरतीब विकास ही आपदाओं की रफ्तार बढ़ा रहे हैं. लेकिन चेतावनियों के बावजूद, पर्यावरणीय आकलनों को अक्सर नज़रअंदाज़ किया गया. नतीजा यह हुआ कि आज हर बरसात में गांव डूब रहे हैं और सड़कें खिसक रही हैं.

अब क्या होना चाहिए?

विशेषज्ञों और जलवायु कार्यकर्ताओं का कहना है कि हालात अब हाथ से निकल चुके हैं. हिमाचल को बचाने के लिए सिर्फ चेतावनियां नहीं, बल्कि कड़े पर्यावरण कानून, मज़बूत पूर्व चेतावनी तंत्र और सख्त नियमों की तत्काल ज़रूरत है. इसके अलावा वैज्ञानिक संस्थानों और सरकार के बीच तालमेल बेहतर हो, ताकि आपदा आने से पहले ही सुरक्षात्मक कदम उठाए जा सकें. अगर अब भी लापरवाही जारी रही, तो देवभूमि कहलाने वाला हिमाचल हमेशा-हमेशा के लिए अपनी असली पहचान खो सकता है.

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नाज़ुक मोड़ पर खड़ा हिमाचल

हिमाचल में बार-बार आने वाली आपदाएं अब अचानक होने वाली घटनाएं नहीं रह गईं, बल्कि यह प्रकृति के बिगड़ते संतुलन का साफ़ संकेत हैं. यही वजह है कि यहां लोगों की ज़िंदगी, रोज़गार और प्राकृतिक संपदा सब कुछ खतरे में है. अब या तो वैज्ञानिकों की सलाह मानकर सही कदम उठाए जाएं, वरना देवभूमि कहलाने वाला यह प्रदेश हमेशा के लिए आपदा क्षेत्र बन सकता है. 

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