नेपाल की Gen-Z 'क्रांति' डीप-स्‍टेट की करतूत बनती क्‍यों दिख रही है?

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नेपाल में भ्रष्टाचार, सोशल मीडिया प्रतिबंध, और राजशाही की बहाली जैसे मुद्दों को लेकर आम जनता विशेषकर युवा (Gen-Z) हिंसक प्रदर्शन कर रहे हैं. प्रधानमंत्री के पी ओली सहित कई मंत्री रिजाइन कर चुके हैं. कई की तो भीड़ ने पिटाई भी की है. इन प्रदर्शनों के पीछे 'हामी नेपाल' जैसे गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) की भूमिका अहम बताई जा रही है. इन घटनाओं को कुछ लोग स्थानीय असंतोष का स्वतः स्फूर्त परिणाम मानते हैं, वहीं कुछ लोग इन सबके पीछे डीप स्टेट की साजिश भी देखते हैं. नेपाल की अस्थिरता के माध्यम से अमेरिका या चीन अपने भू-राजनीतिक हित साध रहे हैं. आइये देखते हैं कि नेपाल की इस क्रांति को क्यों डीप स्टेट की करतूत माना जा रहा है, और इसके पीछे की संभावित साजिशों का भारत पर क्या प्रभाव हो सकता है?

 नेपाल में सोमवार और मंगलवार को बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए, जिनका तात्कालिक कारण 4 सितंबर 2025 को सरकार द्वारा लगाए गए सोशल मीडिया प्रतिबंध थे. फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, और 26 अन्य प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना गया. 'हामी नेपाल' जैसे NGOs ने 'यूथ्स अगेंस्ट करप्शन' बैनर तले युवाओं को संगठित किया. प्रदर्शन अचानक इतना  हिंसक हो गए जितना किसी को उम्मीद नहीं थी. कम से कम 30 लोगों की मौत हुई और काठमांडू में कर्फ्यू लगाना पड़ा. जाहिर है शक की सुई  बढ़ गई कि इन प्रदर्शनों के पीछे कोई न कोई तो है. भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद (नेपो किड्स), और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर धरना प्रदर्शन होते हैं,पर नेताओं को घसीट का मारा नहीं जाता है. राष्ट्रपति- प्रधानमंत्री देश की संसद को लूटपाट और आगजनी नहीं की जाती है.

प्रदर्शनकारी राजशाही की बहाली और हिंदू राष्ट्र की मांग को लेकर भी नारे लगा रहे थे. दरअसल नेपाली जनता का लोकशाही से मोहभंग हुआ है. इसके पीछे 2008 में राजशाही समाप्त होने के बाद से नेपाल में मजबूत और स्थाई सरकार का न बन पाना है. पिछले 17 वर्षों में 14 सरकारें बदल चुकी हैं, जिसने जनता में लोकतंत्र के प्रति मोहभंग पैदा होना स्वाभाविक है.

प्रदर्शनकारियों ने पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह का समर्थन करते हुए महाराज लौटो, देश बचाओ जैसे नारे लगाए. प्रदर्शनों में चुनिंदा सरकारी इमारतों और नेताओं के घरों को निशाना बनाया गया. यही कारण रहा कि यह संदेह पुख्ता हुआ कि इस तोड़ फोड़ के पीछे कोई सुनियोजित साजिश जरूर हो सकती है.

डीप स्टेट क्या है?

डीप स्टेट शब्द का इस्तेमाल एक गुप्त और अनधिकृत नेटवर्क के बारे में किया जाता है, जो सरकारी, कॉर्पोरेट, और गैर-सरकारी अभिजात्य वर्गों द्वारा नीति-निर्माण को नियंत्रित करता है, निर्वाचित सरकारों को कमजोर करता है, और अपने हितों को बढ़ावा देता है. आम तौर पर इस शब्द को आजकल अमेरिकी डीप स्टेट के संदर्भ में लिया जाता है. जार्ज सौरोस के संगठन ओपन सोसायटी फाउंडेशन (ओएसएफ)को इसके पीछे बताया जाता है. इस संगठन को बहुत से देशों में शासन परिवर्तन, क्रांतियों, और अस्थिरता पैदा करने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है. भारत में भारतीय जनता पार्टी भी इस संगठन पर आरोप लगाती रही है कि विपक्ष को ओएसएफ से सहयोग मिलता रहा है. नेपाल में क्रांति को डीप स्टेट की साजिश मानने के पीछे कई तर्क हैं.

1. 'नेपो किड' यदि समस्या है, तो पूरी दुनिया में है, सिर्फ नेपाल ही क्यों भड़का?

नेपाल में प्रदर्शनकारी भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद ("नेपो किड्स") को प्रमुख मुद्दा बना रहे हैं, विशेष रूप से नेताओं और प्रभावशाली परिवारों के बच्चों को दी जाने वाली प्राथमिकताओं पर. यह समस्या ग्लोबल है. भारत, अमेरिका, और अन्य देशों में भी भाई-भतीजावाद की शिकायतें आम हैं. अब सवाल उठता है कि फिर नेपाल में ही यह मुद्दा इतना क्यों उबला?

नेपाल में 2008 के बाद से बार-बार सरकारें बदलने और भ्रष्टाचार के आरोपों ने जनता का विश्वास तोड़ा है. 17 वर्षों में 14 सरकारों की अस्थिरता ने जनता को यह सोचने पर मजबूर किया कि लोकतंत्र उनके लिए स्थिरता और समृद्धि नहीं ला सकता. भाई-भतीजावाद इस असंतोष का प्रतीक बन गया, क्योंकि सत्ताधारी दलों के नेताओं के परिवारों को अक्सर लाभकारी पद दिए गए.

नेपाल में Gen-Z ने सोशल मीडिया पर #Nepokids और #Nepobabies जैसे ट्रेंड के माध्यम से इस मुद्दे को उछाला. 'हामी नेपाल' जैसे NGOs ने इन ट्रेंड्स को बढ़ावा देकर युवाओं को संगठित किया. अन्य देशों में भाई-भतीजावाद के खिलाफ आंदोलन इतने संगठित नहीं हुए, क्योंकि नेपाल की तरह तीव्र राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक संकट वहां नहीं था.

माना जा रहा है कि डीप स्टेट ताकतें नेपाल के असंतोष को हवा दे रही हैं, ताकि इसे अपने हितों के लिए उपयोग कर सकें. उदाहरण के लिए, नेपाल में सोशल मीडिया प्रतिबंध को डीप स्टेट द्वारा प्रायोजित क्रांति का कारण माना जा रहा है. भारत में भी कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के कई दशकों का कार्यकाल समाप्त होने के पीछे भाई-भतीजावाद, वंशवाद ही रहा है.  नेपाल की अस्थिरता को बढ़ावा देने के लिए भाई-भतीजावाद जैसे मुद्दों को चुनिंदा रूप से उछाला गया हो सकता है.

2- चुनिंदा ठिकानों को निशाना बनाना, सुनियोजित साजिश?

प्रदर्शनकारियों ने काठमांडू में संसद भवन, पूर्व प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल की पार्टी कार्यालय, और कुछ नेताओं के घरों को चुनिंदा रूप से निशाना बनाया गया. यह व्यवस्थित दृष्टिकोण संदेह पैदा करता है कि क्या कोई लिस्ट पहले से तैयार थी.

'हामी नेपाल' ने प्रदर्शनकारियों को स्कूल यूनिफॉर्म पहनने और कॉलेज बैग लाने की सलाह दी, जिससे यह स्पष्ट है कि प्रदर्शन सुनियोजित थे. चुनिंदा ठिकानों को निशाना बनाना यह संदेह पैदा करता कि प्रदर्शनकारियों को ऐसी टार्गेट्स पर भेजा गया जिनको निशाने पर लेना था. जैसे सत्ताधारी दलों और उनके नेताओं के घरों-दफ्तरों और कारों को निशाना बनाया गया.बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार गिराने के लिए भी इसी तरह की रणनीति को ही अपनाया गया था. नेपाल में हिंसक प्रदर्शनों को बेहद ऑर्गानाइज्ड तरीके से सोशल मीडिया के सहारे हाउ टू प्रोटेस्ट जैसे वीडियो का प्रसार किया गया. डीप स्टेट ने बिल्कुल इसी कार्यशैली का सहारा लेकर इसके पहले भी कई देशों में सत्ता परिवर्तन कराने में सफल रहा है.

 स्थानीय मुद्दों पर जनता के असंतोष को भड़काकर चुनिंदा लक्ष्य तक पहुंचना यह संकेत देते हैं कि कोई बाहरी ताकत इसको दिशा दे रहा हो. उदाहरण के लिए, राजशाही समर्थकों ने लोकतंत्र समर्थक दलों और मीडिया घरानों को निशाना बनाया.जो डीप स्टेट द्वारा समर्थित सत्ता प्रतिष्ठानों को बदलने की रणनीति पर काम कर रहा था.

3. अचानक नए नेताओं का उभरना, संयोग या साजिश?

प्रदर्शनों में अचानक ऐसे नए नेताओं का उभरना जो पहले कभी जनता के बीच इतने पॉपुलर नहीं थे जो चुनाव जीतकर सत्ता में आ सकें. इस तरह के नेतृत्व का उभरना भी कुछ ऐसा ही संदेह पैदा करता है कि कोई ताकत इन सबके पीछे है. जैसे नबराज सुबेदी जो राजशाही समर्थक संयुक्त जन आंदोलन समिति के संयोजक हैं अचानक महत्वपूर्ण हो गए. हालांकि सुबेदी ने इसी साल मार्च महीने में सरकार को धमकी दी थी कि अगर संवैधानिक राजशाही को फिर से नहीं लाया गया तो गृहयुद्ध होगा. पर सुबेदी जैसे नेताओं में कभी इतनी क्षमता नहीं थी कि वे चुनाव लड़कर नेपाल में सत्ता में आ सकें. इसी तरह नेपाल के मेयर बालेन शाह को भी जिस तरह जेन जी ने अपने सर माथे पर बिठाया वह भी इसी तरह का एक उदाहरण है. सुबेदी और बालेन शाह जैसे नेताओं की अचानक जनता के बीच खास हो जाना यह डीप स्टेट की रणनीति का हिस्सा ही लगता है. जैसे बांग्लादेश में मोहम्मद युनूस अचानक बड़े नेता बन गए. नेपाल में भी 

नेपाल में प्रदर्शन शुरू में नेतृत्वविहीन लग रहे थे, लेकिन 'हामी नेपाल' और सुबेदी जैसे नेताओं ने जल्द ही इसे दिशा दे दी. इस तरह की जन  क्रांतियों की विशेषता है कि स्थानीय नेताओं को डीप स्टेट प्रायोजित कर उन्हें सामने लाता है.

यह आश्चर्यजनक नहीं लगता है कि बांग्लादेश में 2024 में शेख हसीना की सरकार गिरने के बाद मोहम्मद यूनुस जो एक नोबेल पुरस्कार विजेता हैं अंतरिम सरकार के नेता बने. जबकि उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि सीमित थी. श्रीलंका में 2022 में रानिल विक्रमसिंघे, जो पहले अलोकप्रिय थे, आर्थिक संकट के बाद सत्ता में आए. पाकिस्तान में भी इमरान खान जैसे लोकप्रिय नेता की जगह अपेक्षाकृत बहुत कम लोकप्रिय लोगों ने सत्ता संभाली हुई है.

4. श्रीलंका और बांग्‍लादेश को सत्‍ता बदलने से हांसिल क्‍या हुआ, जो नेपाल से उम्‍मीद रखी जाए

श्रीलंका (2022) और बांग्लादेश (2024) में सत्ता परिवर्तन ने दक्षिण एशिया में अस्थिरता का एक पैटर्न उजागर किया है. यही कारण है कि नेपाल में हो रहे प्रदर्शनों से जनता क्या उम्मीद कर रही इसकी चर्चा हो रही है. इन देशों में युवा-नेतृत्व वाले आंदोलनों ने सरकारों को उखाड़ फेंका, लेकिन परिणामों और नेपाल से अपेक्षाओं की तुलना कई सवाल उठाती है. श्रीलंका में आर्थिक संकट, ईंधन और खाद्य पदार्थों की कमी ने जनता को सड़कों पर उतारा. Gen-Z और मिलेनियल्स ने राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के खिलाफ प्रदर्शन किए, जो हिंसक हो गए. प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा किया, जिसके बाद राजपक्षे मालदीव भाग गए. रानिल विक्रमसिंघे सत्ता में आए, जिन्हें पश्चिमी देशों के करीब माना जाता है. परिणामस्वरूप, श्रीलंका को IMF से बेलआउट पैकेज मिला, लेकिन आर्थिक सुधार धीमा रहा. जनता को तत्काल राहत नहीं मिली, और विदेशी प्रभाव बढ़ा.

इसी तरह पिछले साल बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन ने शेख हसीना की सरकार को उखाड़ फेंका. हिंसा में 100 से अधिक लोग मारे गए, और हसीना भारत में शरण लेने को मजबूर हुईं. मोहम्मद यूनुस, एक नोबेल पुरस्कार विजेता, अंतरिम सरकार के नेता बने. यह सत्ता परिवर्तन अमेरिकी डीप स्टेट से जोड़ा गया, क्योंकि हसीना की भारत और चीन के साथ संतुलित नीति पश्चिम के लिए चुनौती थी. परिणामस्वरूप, बांग्लादेश में पश्चिमी प्रभाव बढ़ा, और भारत के लिए सुरक्षा और कूटनीतिक चुनौतियां उत्पन्न हुईं, विशेष रूप से पूर्वोत्तर में.

श्रीलंका और बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन से आर्थिक राहत कम, विदेशी प्रभाव ज्यादा बढ़ा. नेपाल में भी यही खतरा है. भारत के लिए यह क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा की चुनौती है, क्योंकि विदेशी ताकतें नेपाल के असंतोष का उपयोग अपने हितों के लिए कर सकती हैं.

5. चीन और अमेरिका की संदिग्ध गतिविधियां, क्या भारत निशाना?

नेपाल में चीन का प्रभाव बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं, जैसे हवाई अड्डे और राजमार्ग, के माध्यम से बढ़ा है. ये परियोजनाएं जनता में असंतोष का कारण बनी हैं, क्योंकि इनसे स्थानीय लाभ कम हुआ है. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि चीन नेपाल में अस्थिरता को बढ़ावा देकर भारत के प्रभाव को कम करना चाहता है. भारत-नेपाल का 1,751 किलोमीटर खुला बॉर्डर चीन के लिए जासूसी और अवैध गतिविधियों का रास्ता बन सकता है. हाल ही में, चार चीनी नागरिकों को नेपाल सीमा से भारत में अवैध प्रवेश की कोशिश करते पकड़ा गया, जो संदेह को बढ़ाता है.

दूसरी तरफ नेपाल में जो हो रहा है उसमें अमेरिका के हाथ से भी इनकार नहीं किया जा सकता.  नेपाल में USAID और मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) के माध्यम से निवेश किया, लेकिन 2025 में इन परियोजनाओं के रुकने से आर्थिक संकट बढ़ा. कुछ स्रोतों का दावा है कि अमेरिकी डीप स्टेट नेपाल में क्रांति को प्रायोजित कर रहा है. 'हामी नेपाल' की संगठनात्मक रणनीति बहुत कुछ डीप स्टेट की रणनीति से मिलती जुलती है.

नेपाल भारत का बफर जोन है और इसकी अस्थिरता भारत की सीमा सुरक्षा, विशेष रूप से चीन के साथ सीमा विवाद के संदर्भ में प्रभावित करती है. श्रीलंका (2022) और बांग्लादेश (2024) में सत्ता परिवर्तन ने भारत के क्षेत्रीय प्रभाव को पहले ही कमजोर किया है. पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भारत वैसे ही दूर है. नेपाल में भारत विरोधी सरकार के बावजूद भारत के लिए बहुत चिंता की बात नहीं थी.नई सरकार पश्चिमी या चीनी प्रभाव में आती है तो जाहिर है कि भारत का नेपाल में प्रभाव और कम हो सकता है.
 

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