नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और मशहूर लेखक बीपी कोइराला ने अपनी किताब Narendra Dai में लिखा है कि हमने सालों तक सहा, चुपचाप बैठे रहे, लेकिन अब गुस्से की ज्वाला बाहर आनी चाहिए. इस समाज की जड़ता ने हमें दबाया, अब विद्रोह का समय है. उन्होंने बेशक इन पंक्तियों को राणा शासन के दमन के विरोध में लिखा था. लेकिन नेपाल की मौजूदा स्थिति को देखकर लग रहा है कि मानो जैसे उन्होंने दशकों पहले ही नेपाल की इस बगावत की भविष्यवाणी कर दी थी.
कोइराला ने अपनी कलम से विद्रोह की जिस अलख को जगाने की कोशिश की. वह काठमांडू की सड़कों पर सुलगती दिखी. नेपाल की सड़कों पर आज विद्रोह का जो बिगुल बजा है. वह सिर्फ युवाओं की अचानक की गई बगावत नहीं है बल्कि सालों से धधक रहा ज्वालामुखी है, जो अब फट पड़ा है. इस हिंसा को बेशक जायज ठहराया नहीं जा सकता. लेकिन वर्षों के भ्रष्टाचार से लेकर नेपोटिज्म और ज्यादती का हिसाब चुकता करने के लिए युवा सड़कों पर हैं और हिंसा का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं. तभी तो विद्रोही भीड़ मौजूदा हुक्मरानों से लेकर पूर्व प्रधानमंत्रियों और उनके परिवार वालों पर हमला करने से भी नहीं चूक रही.

लेकिन नेपाल में युवाओं का जो गुस्सा फूटा है, उसकी जड़ें बरसों की नाइंसाफी और हुक्मरान के खिलाफ पनप रहे गुस्से से सींची गई हैं. चार्ल्स टिली ने अपनी किताब The Politics of Collective Violence में भीड़ की हिंसा पर विस्तार से लिखा है. वह लिखते हैं कि भीड़ की हिंसा को अक्सर irrational act यानी तर्क या समझदारी से परे समझा जाता है लेकिन असल में ये political performance है.
उन्होंने बताया है कि हिंसा सिर्फ भावनात्मक या व्यक्तिगत नहीं होती बल्कि यह राजनीतिक और सामाजिक शक्ति के संघर्ष से जुड़ी होती है. ये एक तरह का कलेक्टिव एक्शन है, जो समाज में बदलाव, सत्ता की मांग या संसाधनों के लिए किए जाने वाले कंपटीशन से पैदा होता है. सामाजिक आंदोलन दबाए जाते हैं तो हिंसा की संभावना बढ़ जाती है. दरअसल आर्थिक और सामाजिक असमानता हिंसा को भड़काती हैं.
टिली इस किताब में रिपरटॉयर ऑफ कंटेंशन (repertoires of contention) का कॉन्सेप्ट बताते हैं कि हिंसा का स्वरूप समय और स्थान के साथ बदलता है, लेकिन इसके मूल में सामाजिक और राजनीतिक ताकत का संघर्ष होता है.

लेकिन सवाल है कि नेपाल में इतने दशकों से आखिर हो क्या रहा था? जो लोगों का गुस्सा इस कदर भड़का हुआ है. नेपाल के प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के खिलाफ इस गुस्से की वजह तो समझ आती है लेकिन पूर्व प्रधानमंत्रियों और उनके परिवार पर हमले हैरान करने वाले रहे. इसका जवाब नेपाल में बरसों से हुए घोटालों की गर्त में छिपा है.
1991 में नेपाली कांग्रेस सरकार ने वीआईपी हेलीकॉप्टर खरीदने के लिए एक टेंडर जारी किया था. मिस्र की कंपनी Indotrans Aircraft Services ने बोली जीती और 1.8 करोड़ डॉलर में नेपाल को एक MI-17 हेलीकॉप्टर बेचा. लेकिन जांच में पता चला कि ये हेलीकॉप्टर पुराना और खराब हालत में था. इसकी असल कीमत भी 40 लाख डॉलर थी. जांच थोड़ा और आगे बढ़ी तो पता चला कि इस डील के बाकी बचे 1.4 करोड़ डॉलर का कमीशन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला के रिश्तेदारों को मिला. ये घोटाला इतना बड़ा था कि कोइराला सरकार गिर गई और नेपाल में जमकर हंगामा बरपा. जांच के लिए कमेटी बनी लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला.
इसके बाद ना जाने कितने ही बड़े घोटाले हुए, जिन्होंने नेपाल को दीमक की तरह खा लिया. 1990 के दशक का ही Lauda Air Scandal काफी चर्चा में रहा. 1999 में नेपाल की रॉयल नेपाल एयरलाइंस (RNAC) ने ऑस्ट्रिया की Lauda Air से एक बोइंग 767 विमान लीज पर लिया था. तकरीबन 4.5 करोड़ डॉलर की लागत से छह साल के लिए सौदा हुआ.
लेकिन बाद में खुलासा हुआ कि ये डील पूरी तरह से घपले से भरी थी. जांच में पता चला कि Lauda Air को चुना गया क्योंकि इसमें मोटा किकबैक देने का वादा किया गया था. लेकिन इससे बड़ी चपत ये थी कि विमान की हालत इतनी खराब थी कि इसे बार-बार मरम्मत की जरूरत पड़ती थी. इस पर हंगामा इतना बरपा कि जनता सड़कों पर उतर आई और संसद में जमकर बवाल हुआ.

2008 का सूडान घोटाला भी इस फेहरिस्त में है. नेपाल पुलिस को अफ्रीकी देश सूडान में UN मिशन के लिए बख्तरबंद गाड़ियां और अन्य उपकरण खरीदने थे. इसके लिए नेपाल सरकार ने करीब तीन करोड़ डॉलर का बजट रखा. एक ब्रिटिश कंपनी को ठेका दिया गया लेकिन बाद में पता चला कि गाड़ियां खराब क्वालिटी की थी. ये गाड़ियां इतनी खराब थीं कि सूडान में UN मिशन ने इन्हें इस्तेमाल करने से मना कर दिया. इस डील में नेपाल पुलिस के कई बड़े अधिकारी और मंत्री शामिल थे. नेपाल पुलिस के तत्कालीन आईजीपी रमेश चंद्र ठाकुरी समेत कई बड़े नाम चर्चा में आए. लेकिन हमेशा के लिए मामले पर हंगामा हुआ और फिर ठंडा पड़ गया.
नेपाल की सियासत में गहरे तक पैठ कर चुके भ्रष्टाचार ने देश में उद्योग-धंधों को चौपट करना शुरू कर दिया. निवेशकों ने दूरी बनानी शुरू कर दी. इसका सीधा असर रोजगार पर भी पड़ा. बड़ी संख्या में युवाओं ने काम की तलाश में भारत से लेकर मलेशिया और गल्फ का रुख करना शुरू किया. इससे युवाओं में धीरे-धीरे सियासत के प्रति नफरत पनपने लगी.

देश में राजशाही के पतन से लेकर, माओवादी आंदोलन और लोकतंत्र का पायदान चढ़ने तक देश में सत्ता का स्वरूप तो लगातार बदलता रहा लेकिन इस सत्ता को वही चेहरे हथियाते रहे. वही पुराने नेता, उनकी पार्टियां और उनके परिवार.
नेपाल में भ्रष्टाचार इस कदर फैला है कि करप्शन के इंडेक्स में 180 देशों में वह 107वें पायदान पर है. देश के 84 फीसदी से ज्यादा लोग डंके की चोट पर बोलते हैं कि उनकी सरकार सिर से लेकर पैर तक करप्शन में डूबी हुई है. स्थिति ये बन गई है कि हर साल बड़ी संख्या में नेपाल के युवा देश छोड़ देते हैं. युवाओं का ये कोई साधारण माइग्रेशन नहीं है बल्कि आर्थिक असमानता, लगातार सीमित हो रहे अवसर और प्रशासनिक नाकामियों का भार है, जिसे देश में ही छोड़कर लोग माइग्रेट हो रहे हैं.
बीते तीन दशक में लगभग 68 लाख नेपाली नागरिक विदेशों में काम कर रहे हैं. इनमें से 15 से 17 लाख नेपाली तो भारत में रहकर रोजी-रोटी कमा रहे हैं. एक लाख नेपाली स्टूडेंट हर साल पढ़ाई के लिए विदेश का रुख कर लेते हैं. नेपाल में बेरोजगारी का ग्राफ बताता है कि 2017-2018 की तुलना में यह 11.4 फीसदी से बढ़कर 2022-2023 में 12.6 फीसदी हो गई है.
नेपाल के लोग विशेष रूप से युवा नेपोटिज्म यानी भाई-भतीजावाद से भी त्रस्त हैं. नेपाल की सियासत वंशवाद में जकड़ी हुई है. नेपाली कांग्रेस से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल), माओवादी लगभग सभी पार्टियों में नेपो किड्स की भरमार है. संसद और प्रांतीय असेंबली में पूर्व प्रधानमंत्रियों, मंत्रियों और बड़े नेताओं के बच्चे और रिश्तेदारों की भरमार है.
सरकारी नौकरियों से लेकर नौकरशाही और प्रतियोगी परीक्षाओं में भी प्राथमिकता नेपो किड्स हैं. सरकारी ठेके भी अक्सर नेताओं के रिश्तेदारों और उनके दोस्तों को मिल जाते हैं. इससे हताश होकर युवा विदेश पलायन कर रहे हैं. लेकिन इस साल की शुरुआत से ही युवाओं ने सोशल मीडिया पर नेपोटिज्म के खिलाफ खुलकर बोलना शुरू किया. सोशल मीडिया पर नेपोटिज्म के खिलाफ जमकर हैशटैग ट्रेंड होने लगे तो इस बीच सरकार ने कई सोशल मीडिया अकाउंट्स पर बैन लगा दिया. इतिहास गवाह है कि लंबे समय तक शोषण झेल रही जनता जब बगावत पर उतर आती है तो वह अच्छे और बुरे का फर्क भूल जाती है. उसे बस अपने साथ हुआ अन्याय नजर आता है.
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