हिमाचल प्रदेश, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, पिछले कुछ सालों में बार-बार प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हो रहा है. भूस्खलन, बादल फटने, बाढ़ और अचानक आई बाढ़ (फ्लैश फ्लड) जैसी घटनाएं अब आम हो गई हैं. इन आपदाओं ने न केवल जान-माल का नुकसान किया है, बल्कि हिमाचल की अर्थव्यवस्था और पर्यटन पर भी गहरा असर डाला है. आखिर हिमाचल में इतने खराब मौसम और आपदाओं की वजह क्या है?
वैज्ञानिक कारण
1. जलवायु परिवर्तन (Climate Change)
जलवायु परिवर्तन हिमाचल में बढ़ती आपदाओं का सबसे बड़ा कारण है. वैज्ञानिकों के अनुसार, हिमाचल में पिछले एक सदी में औसत तापमान 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है. इससे मौसम के पैटर्न में बदलाव आया है. बारिश की तीव्रता और आवृत्ति बढ़ गई है.
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बादल फटने की घटनाएं: बादल फटना (Cloudburst) तब होता है जब बहुत कम समय में किसी छोटे क्षेत्र में भारी बारिश होती है. भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, अगर 20-30 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में एक घंटे में 100 मिमी से ज्यादा बारिश हो, तो उसे बादल फटना कहते हैं.
हिमाचल में 2024 के मानसून में 18 बादल फटने की घटनाएं दर्ज की गईं. ग्लोबल वार्मिंग के कारण वायुमंडल में नमी की मात्रा बढ़ गई है, जिससे भारी बारिश और बादल फटने की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं.
अनियमित बारिश: हिमाचल में बारिश का पैटर्न बदल गया है. पहले मानसून में बारिश एकसमान होती थी, लेकिन अब कम समय में ज्यादा बारिश होने लगी है. उदाहरण के लिए, 2023 में कुल्लू जिले में सामान्य से 180% ज्यादा बारिश हुई, जिससे बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ गईं.
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पश्चिमी विक्षोभ का प्रभाव: हिमाचल में मानसून के साथ-साथ पश्चिमी विक्षोभ (Western Disturbances) भी भारी बारिश का कारण बनते हैं. 2023 में 7-10 जुलाई को पश्चिमी विक्षोभ और मानसून के मिलने से भारी बारिश हुई, जिसने कुल्लू, मंडी और शिमला जैसे जिलों में तबाही मचाई.
2. हिमालय की भौगोलिक संरचना
हिमाचल प्रदेश हिमालय के पश्चिमी हिस्से में स्थित है, जो दुनिया का सबसे युवा पर्वत श्रृंखला है. यह भौगोलिक रूप से अस्थिर और भूकंप के लिए संवेदनशील क्षेत्र है.
भूकंपीय जोखिम: हिमाचल के पांच जिले (चंबा, हमीरपुर, कांगड़ा, कुल्लू, मंडी) भूकंप के लिए अति संवेदनशील क्षेत्र (जोन IV और V) में आते हैं. भूकंप और लगातार बारिश से पहाड़ कमजोर हो जाते हैं, जिससे भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती हैं.
मिट्टी का कटाव: हिमाचल में लगभग 58.36% भूमि तीव्र मिट्टी कटाव (Soil Erosion) के खतरे में है. भारी बारिश के कारण मिट्टी बह जाती है, जिससे पहाड़ों की स्थिरता कम होती है. भूस्खलन का खतरा बढ़ता है.
पहाड़ों की ढलान: हिमाचल के पहाड़ों की ढलान और ऊंचाई बारिश के पानी को तेजी से नीचे की ओर ले जाती है, जिससे फ्लैश फ्लड की घटनाएं बढ़ती हैं. पिर पंजाल रेंज जैसे क्षेत्रों में मानसून की हवाएं रुकती हैं, जिससे भारी बारिश और बादल फटने की स्थिति बनती है.
3. ग्लेशियर और बर्फ का पिघलना
जलवायु परिवर्तन के कारण हिमाचल में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. इससे नदियों में पानी का स्तर बढ़ जाता है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ता है. साथ ही, ग्लेशियरों के पास बादल फटने की घटनाएं ज्यादा होती हैं, क्योंकि वहां ठंडी और गर्म हवाओं का मेल होता है.
अन्य कारण (मानव-निर्मित और नीतिगत कारण)
1. अवैज्ञानिक विकास
हिमाचल में अनियोजित विकास कार्यों ने आपदाओं को और बढ़ावा दिया है. विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार और डेवलपर्स पर्यावरणीय प्रभावों को नजरअंदाज कर रहे हैं.
हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स: हिमाचल में 174 छोटे-बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स हैं, जो 11,209 मेगावाट बिजली पैदा करते हैं. इन प्रोजेक्ट्स के लिए पहाड़ों को काटा जाता है. नदियों का प्रवाह बाधित होता है. उदाहरण के लिए, 2023 में कुल्लू और सैंज वैली में मलाना, सैंज और पार्वती प्रोजेक्ट्स के पास भारी नुकसान हुआ. डैम में लकड़ी और अन्य जैविक पदार्थ सड़ने से मीथेन गैस निकलती है, जो स्थानीय तापमान को बढ़ाती है और बादल फटने जैसी घटनाओं को बढ़ावा देती है.
सड़क निर्माण: राष्ट्रीय राजमार्गों और चार-लेन सड़कों के लिए पहाड़ों को लंबवत (Vertically) काटा जा रहा है, जो पारंपरिक टेरेसिंग (सीढ़ीदार कटाई) से खतरनाक है. इससे भूस्खलन का खतरा बढ़ता है. मंडी, कुल्लू और शिमला में सड़क निर्माण के कारण बारिश में स्लिप और भूस्खलन की घटनाएं आम हैं.
निर्माण गतिविधियां: शिमला जैसे शहरों में बहुमंजिला इमारतें बन रही हैं, जो पर्यावरणीय चेतावनियों को नजरअंदाज करती हैं. उदाहरण के लिए, शिमला के कच्ची घाटी में मिट्टी की कमजोरी के बावजूद बड़े निर्माण हुए, जिसके कारण भूस्खलन हुआ.
2. जंगलों की कटाई और भूमि उपयोग में बदलाव
हिमाचल में जंगलों को काटकर बिजली प्रोजेक्ट्स, सड़कों और पर्यटन के लिए जगह बनाई जा रही है. 1980 से 2014 तक किन्नौर में 90% जंगल गैर-वन गतिविधियों के लिए हस्तांतरित किए गए, जिससे जैव विविधता और मिट्टी की स्थिरता को नुकसान हुआ. जंगलों की कमी से मिट्टी का कटाव बढ़ता है, जिससे भूस्खलन और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है.
3. पर्यटन का दबाव
हिमाचल में हर साल लाखों पर्यटक आते हैं, खासकर कुल्लू, मनाली और शिमला जैसे क्षेत्रों में. इससे पर्यावरण पर दबाव बढ़ता है. होटल, रिसॉर्ट्स और अन्य निर्माण कार्यों के लिए पहाड़ों को काटा जाता है. कचरे का उचित प्रबंधन नहीं होता. इससे जल स्रोत और नदियां प्रदूषित होती हैं. बाढ़ जैसी स्थिति बनती है. विशेषज्ञों का सुझाव है कि ‘इकोटूरिज्म’ को बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन इसे भी सावधानी से लागू करना जरूरी है.
4. नीतिगत कमियां
हिमाचल सरकार और केंद्र सरकार की नीतियों में कमी भी आपदाओं को बढ़ाने में योगदान दे रही है.
- पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की कमी: हाइड्रोपावर और सड़क परियोजनाओं से पहले पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment) ठीक से नहीं किया जाता. इससे परियोजनाओं के दीर्घकालिक प्रभावों का पता नहीं चलता.
- आपदा प्रबंधन की कमजोरी: हालांकि हिमाचल में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SDMA) है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह प्रभावी ढंग से काम नहीं कर रहा. अर्ली वार्निंग सिस्टम और आपदा प्रबंधन योजनाओं को अपडेट करने की जरूरत है.
- अवैध खनन: नदियों के किनारे अवैज्ञानिक खनन से नदियों का प्रवाह बाधित होता है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ता है.
हाल की आपदाओं का प्रभाव
पिछले कुछ सालों में हिमाचल में आपदाओं की संख्या और तीव्रता बढ़ी है...
- 2021: 476 लोगों की मृत्यु, 1151 करोड़ रुपये का नुकसान.
- 2022: 276 लोगों की मृत्यु, 939 करोड़ रुपये का नुकसान.
- 2023: 404 लोगों की मृत्यु, 12000 करोड़ रुपये का नुकसान.
- 2024: 358 लोगों की मृत्यु, 1004 घर क्षतिग्रस्त, और 7088 पशु हानि.
2023 में कुल्लू, मंडी और शिमला में भारी बारिश और बादल फटने की घटनाओं ने सैकड़ों घर, दुकानें और स्कूल नष्ट कर दिए. 2024 में 18 बादल फटने की घटनाओं ने 14 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को नुकसान पहुंचाया.
समाधान और सुझाव
इन आपदाओं को कम करने के लिए कुछ कदम उठाए जा सकते हैं...
- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन: सभी विकास परियोजनाओं से पहले सख्त पर्यावरणीय जांच होनी चाहिए.
- वैज्ञानिक निर्माण: सड़कों और इमारतों के लिए टेरेसिंग और पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों का उपयोग करना चाहिए.
- जंगल संरक्षण: जंगलों की कटाई पर रोक और पुनर्वनीकरण (Reforestation) को बढ़ावा देना चाहिए.
- अर्ली वार्निंग सिस्टम: हर ग्राम पंचायत और शहरी क्षेत्र में स्वचालित मौसम स्टेशन स्थापित किए जाएं.
- इकोटूरिज्म: पर्यटन को पर्यावरण के अनुकूल बनाना चाहिए, ताकि प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव कम हो.
- आपदा प्रबंधन: आपदा प्रबंधन योजनाओं को मजबूत करना और स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देना चाहिए.