एकनाथ शिंदे को भारी पड़ सकता है राज और उद्धव ठाकरे का साथ आना

5 hours ago 1

एकनाथ शिंदे एक साथ कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं. चुनौतियां तो उनके हिस्से की शिवसेना के मंत्री और विधायक भी बने हुए हैं, लेकिन सबसे बड़ा चैलेंज राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे का साथ आना है. क्योंकि जिन मुद्दों को लेकर एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे के खिलाफ बगावत की थी, राज ठाकरे के साथ आने से वो नैरेटिव ही पलट जाने का खतरा पैदा हो गया है. 

उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे मिलकर राजनीतिक तौर पर क्या हासिल कर पाएंगे, ये तो आने वाले चुनावों के नतीजे ही बताएंगे - लेकिन तत्काल प्रभाव से दोनों भाइयों ने रैली करके एकनाथ शिंदे की मुश्किलें तो बढ़ा ही डाली हैं. 

महाराष्ट्र में बीजेपी ने उद्धव ठाकरे के खिलाफ जो नैरेटिव सेट किया था, एकनाथ शिंदे सियासी हालात के हिसाब से नायक बन कर उभरे थे. बीजेपी के लिए यही उनकी उपयोगिता भी थी. बीजेपी ने इस्तेमाल करके फेंका तो नहीं, लेकिन उनकी हदें तो तय कर ही दी. पहले उनको मुख्यमंत्री क्यों बनाया गया, और बाद में क्यों नहीं बनाया गया - एकनाथ शिंदे को अपनी राजनीतिक अहमियत समझने के लिए ये काफी है. 

बीएमसी और स्थानीय निकायों के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, और शिंदे सेना के नेताओं की हरकतों से अलग ही विवाद हो रहा है - ऐसे में महाराष्ट्र विधानसभा के मॉनसून सेशन को बीच में छोड़कर एकनाथ शिंदे का दिल्ली दौरा और केंद्रीय मंत्री अमित शाह से मुलाकात सूबे की राजनीति में चर्चा का हॉट टॉपिक बना हुआ है. 

शिंदे की मुश्किलें और दिल्ली दौरा

बीते हफ्ते एकनाथ शिंदे ने दिल्ली में केंद्रीय मंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी. मुलाकात के कई कारण बताये जा रहे हैं, लेकिन जिन परिस्थितियों में एकनाथ शिंदे ने मॉनसून सेशन छोड़ कर दिल्ली का दौरा किया है, अलग ही संकेत मिल रहे हैं. एकनाथ शिंदे के केंद्रीय मंत्र नितिन गडकरी से भी मुलाकात की खबर आई है. नितिन गडकरी से मुलाकात का बहाना भले ही कोई प्रोजेक्ट हो, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में आज की तारीख में भी उनकी खास अहमियत मानी जाती है. 

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के सार्वजनिक रूप से साथ आ जाने से बनने वाले समीकरण तो बीजेपी के लिए भी नई चुनौती है. आगे चलकर असर हो न हो, अभी से माहौल तो बन ही रहा है. मराठी मानुष का मुद्दा तो ठाकरे परिवार की राजनीति का सबसे बड़ा आधार रहा है. मराठी भाषा को लेकर ठाकरे बंधु नये सिरे से हाथ मिलाकर मैदान में कूद पड़े हैं.

बीजेपी अक्सर इस मुद्दे पर मिसफिट हो जाती है, और भाषा विवाद में हिंदी वाला आदेश वापस लेना भी यही इशारा करता है. महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी को खड़े होने के लिए शिवसेना के सपोर्ट की जरूरत होती है. जब उद्धव ठाकरे ने साथ छोड़ा तो उनके बीच से निकलकर एकनाथ शिंदे सामने आ गये, और बीजेपी का काम फिर से आसान हो गया.

एकनाथ शिंदे कितने परेशान हैं, उनकी बातों से ही समझा जा सकता है. एकनाथ शिंदे अपने मंत्रियों, विधायकों और नेताओं से अलग ही परेशान हैं. अपने नेताओं से वो कहते हैं, गड़बड़ वे लोग करते हैं, और सुनना उनको पड़ता है. एकनाथ शिंदे ने पार्टी नेताओं को अनुशासन में रहने की हिदायत दी है. 

शिंदे ये सब ऐसे दौर में कह रहे हैं, जब उनकी पार्टी के विधायक संजय गायकवाड़ एमएलए कैंटीन के कर्मचारियों को बासी खाना सर्व करने के लिए पीटने लगते हैं. उनके कोटे के मंत्रियों संजय शिरशाट और संजय राठौड़ पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं. 

सवाल ये भी उठने लगा है कि क्या अपनी पार्टी पर एकनाथ शिंदे का कंट्रोल कम होने लगा है? और सवाल ये भी है कि क्या एकनाथ शिंदे किसी अलग तरह के दबाव में हैं?

मराठी मानुष के मुद्दे पर शिंदे किधर हैं

1. महाराष्ट्र सरकार में एकनाथ शिंदे भी शामिल हैं. गठबंधन पार्टनर हैं, और डिप्टी सीएम भी. देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली सरकार ने हिंदी पर जो भी फैसला लिया या बदला, फैसले में शामिल तो एकनाथ शिंदे भी माने जाएंगे. कोई विरोध नहीं जताया. मतलब, एकनाथ शिंदे हिंदी के मुद्दे पर भी बीजेपी के साथ हैं. मराठी भाषा के मुद्दे पर सवाल भी उठेगा, और एकनाथ शिंदे को जवाब भी देना होगा.

2. मराठी मानुष आगे चलकर शिवसेना कट्टर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर फोकस हो गई थी. कट्टरता खत्म करते करते उद्धव ठाकरे भी इतना आगे निकल गये कि उन पर हिंदुत्व ही छोड़ देने का आरोप लगा. उद्धव ठाकरे पर जिस मुद्दे से भागने का आरोप लगा था, लौट आये हैं. जो कमियां उद्धव ठाकरे की राजनीति में गिनाई जा रही थीं, राज ठाकरे उसकी भरपाई करेंगे. 

3. अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा और आगे बढ़ा तो एकनाथ शिंदे खुद प्रासंगिक कैसे साबित करेंगे. अगर बीजेपी को एकनाथ शिंदे से कोई फायदा नहीं मिला, तो भला वो उनको तवज्जो क्यों देगी. अगर बिहार में नीतीश कुमार के लिए बंद दरवाजे बीजेपी खोल सकती है, तो उद्धव ठाकरे के लिए क्यों नहीं?

4. अगर बीजेपी का साथ नहीं मिला, और उद्धव ठाकरे की तरफ वापसी की किसी संभावित सूरत में भी बात नहीं बनी, तो एकनाथ शिंदे कहां जाएंगे. अजित पवार के पास तो लौटने का ऑप्शन भी है, लेकिन एकनाथ शिंदे के पास वैसा नहीं है. 

5. अगर बीएमसी और स्थानीय निकाय चुनावों में ठाकरे बंधु का प्रदर्शन बेहतर रहा, तो एकनाथ शिंदे भी राजनीति के उसी मोड़ पर पहुंच जाएंगे जहां हाल तक राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे अलग अलग नजर आ रहे थे. 

---- समाप्त ----

Read Entire Article