आज के समय में घर बनवाना हो या फिर बच्चों को अच्छी शिक्षा मुहैया कराना, ये सबसे महंगे सौदों में शामिल है. खासतौर पर मिडिल क्लास की कमाई का एक बड़ा हिस्सा बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने पर ही खर्च हो जाता है. हर साल निजी स्कूलों की बढ़ती फीस के साथ यहां पड़ने वाले मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों के परिजन न चाहते हुए भी वित्तीय जाल में फंसते जा रहे हैं. बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए निजी स्कूलों पर हो रहे भारी भरकम खर्च को दिल्ली बेस्ड एक चार्टर्ड अकाउंटेंट ने आंकड़ों के साथ समझाया है, जो चौंकाने वाला और बड़ा सवाल खड़ा करने वाला है कि क्या हमें इस खर्च का सही मूल्य मिल रहा है?
फीस भरने के लिए Loan और EMI
मिडिल क्लास के लिए भी आजकल महंगी से महंगी चीजें खरीदना या महंगे से महंगे निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना काफी आसान सा हो गया है, ऐसा नहीं कि ये स्कूल मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए कोई छूट बगैरह देते हैं, बल्कि आसान भारी-भरकम फीस को भरना है क्योंकि कई बड़े स्कूलों और फिनटेक स्टार्टअप्स ने फीस पेमेंट के लिए EMI जैसी सुविधाएं भी शुरू की हुई हैं. स्कूलों की तगड़ी फीस भरने के लिए मिडिल क्लास को कई बार Loan तक लेना पड़ता है, जिसके चलते वो कर्ज का जाल में भी फंसता जा रहा है.
इनकम का बड़ा हिस्सा शिक्षा पर खर्च
इंडिया टुडे की रिपोर्ट में चार्टर्ड अकाउंटेंट मीनल गोयल के हवाले से कहा गया है कि भारत में स्कूली शिक्षा अब सिर्फ सीखने तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि यह चुपचाप एक भारी-भरकम खर्च में तब्दील हो गई है, जो मिडिल क्लास फैमिली की आय का एक बड़ा हिस्सा खा जाती है. आंकड़ों पर गौर करें, तो एकल अभिभावक की सालाना इनकम का 40-80 फीसदी तक बच्चों की पढ़ाई पर खर्च हो रहा है. गोयल के मुताबिक, भारत में वर्तमान शैक्षिक माहौल में, प्राइवेट स्कूलों की बढ़ती लागत कई लोगों को उनके मूल्य पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित कर रही है.
एक्सपर्ट ने ऐसे समझाया पूरा गणित
सीए मीनल गोयल के मुताबिक, अगर आप अभिभावक हैं और आपका बच्चा अच्छे प्राइवेट स्कूल में पढ़ता है, तो शायद आपको ये आंकड़े आसानी से समझ में आ सकते हैं, लेकिन इन्हें एक साथ जोड़कर देखने पर जो तस्वीर सामने आती है, वो चौंकाने वाली है. उन्होंने अपनी एक लिंक्डइन पोस्ट में स्कूलों की फीस और वहां होने वाले अन्य खर्चों से जुड़े इन आंकड़ों को शेयर करते हुए लिखा, 'एडमिशन फीस 35,000 रुपये, ट्यूशन फीस 1.4 लाख रुपये, एनुअल चार्ज 38,000 रुपये, ट्रांसपोर्टेशन चार्ज 44000-73000 हजार रुपये, किताबें और यूनिफॉर्म 20-30 हजार रुपये.'
इन सबको जोड़ देते हैं, तो एक बच्चे के लिए शिक्षा पर ही सालाना खर्च आसानी से 2.5 से 3.5 लाख रुपये तक पहुंच जाता है. गोयल ये तो औसत स्कूल का आंकड़ा है, जबकि बड़े शहरों में कई प्रतिष्ठित स्कूल ऐसे भी हैं, जहां प्रति बच्चे सालाना 4 लाख रुपये से ज्यादा तक खर्च हो जाते हैं, वहीं मध्यम स्तर के स्कूलों में भी अब लगभग 1 लाख रुपये से 1.5 लाख रुपये सालाना तक का खर्च आ जाता है.
शिक्षा खर्च और औसत वार्षिक आय
भारत की औसत वार्षिक आय 4.4 लाख रुपये है और इससे तुलना करते हैं, तो फिर शिक्षा पर होने वाले खर्च से बढ़ रहे वित्तीय दबाव की तस्वीर साफ हो जाती है. निजी स्कूलों में शिक्षा पर होने वाला खर्च जो औसतन 2 लाख रुपये से 4 लाख रुपये प्रति वर्ष तक पहुंच जाता है. एकल अभिभावक की आय का 40% से 80% तक ले जाता है. गोयल कहती हैं कि हम स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती लागत के बारे में तो बात करते हैं, जबकि शिक्षा पर बढ़ता खर्च खासकर मिडिल क्लास फैमिली के लिए आर्थिक परेशानी का सबब बनता जा रहा है.
इसके लिए कई परिवार को चुपचाप दूसरे खर्चों में कटौती कर देते हैं, बचत में से पैसे निकालते हैं, कर्ज लेते हैं या अन्य सुख-सुविधाओं का त्याग तक करने को मजबूर हो जाते हैं और ये सब करना पड़ रहा है बच्चे की स्कूली शिक्षा पूरी करने के लिए.
क्या ये पुनर्विचार का समय है?
स्कूलों पर खर्च होने वाली रकम का एक्सपर्ट द्वारा बताया गया ये आंकड़ा दरअसल, पुनर्विचार के लिए प्रेरित करने वाला है, कि क्या निजी स्कूल वाकई इसके लायक हैं? क्या किफायती स्कूलों, सरकारी स्कूलों या वैकल्पिक शिक्षण विकल्पों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए? गोयल के मुताबिक, जैसे-जैसे फीस हर साल बढ़ती जाएगी, अभिभावकों पर दबाव बढ़ता ही जाएगा, इसलिए जरूरी है कि हिसाब लगाएं और तय करें कि हम असल में किस चीज के लिए भुगतान कर रहे हैं और क्या स्कूल के भारी भरकम बिलों में डूबे बिना अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने का कोई बेहतर तरीका है?
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