सनातन परंपरा में सावन का महीना व्रत और अनुष्ठान के आधार पर पवित्र और माना गया है. चातुर्मास के विधान के कारण वर्षाकाल में पड़ने वाले इन चार महीनों को अध्यात्मिक जागृति का समय भी कहा जाता है. प्राचीन काल से इस समय के लिए कई तरह नियम और आचार-विचार बनाए गए जो आज भी किसी न किसी रूप में हमारी जीवन शैली में मौजूद हैं और लोग इन्हें किसी न किसी रूप में मानते भी हैं.
खान-पान के प्राचीन नियमों पर उठते हैं सवाल?
फिर भी बहुत सारे नियमों को लेकर या तो भ्रम की स्थिति बनी रहती है या फिर वह अतार्किक करार दे दिए जाते हैं. इन नियमों को लेकर नई और पुरानी पीढ़ी के बीच वाद-विवाद की स्थिति उभरती है तो दूसरी तरफ समाज भी उन दो खांचों में बंटा मिलता है, जिनमें एक तरफ के लोग इन नियमों को सही ठहराते हैं और दूसरे तरफ के लोग इसे महज कोरी गप्प मानते हैं.
क्या है सावन को लेकर खान-पान की प्रचलित मान्यता?
सावन की ही बात करें तो सबसे आम प्रचलित मान्यता है कि इस दौरान मांसाहार का सेवन नहीं करना चाहिए. तर्क दिया जाता है कि, सावन का महीना बहुत पवित्र और खास माना है. इस महीने भगवान शिव की पूजा की जाती है और व्रत रखा जाता है. कांवड़ यात्रा निकाली जाती है. इसीलिए इस महीने में मांसाहार को खाने की मनाही होती है.
इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए क्यों जरूरी है मांसाहार से परहेज?
मांसाहार न करने की पीछे के इसी तर्क को लेकर आगे बढ़ें तो यह सिर्फ एक मत हो सकता है, धर्म आधारित एक विचार हो सकता है, लेकिन सिर्फ यही कारण हो, ऐसा नहीं माना जाना चाहिए. यह भी कहा जाता है कि मांसाहार तामसिक प्रवृत्ति का भोजन है और यह सात्विकता से दूर करता है. इस भोजन के सेवन से सुस्ती, आलस्य, अहंकार और क्रोध बढ़ जाता है और अध्यात्म से दूरी हो जाती है, इसलिए इंद्रियों पर काबू रखने के लिए आहार पर नियंत्रण बताया जाता है.
जैव विविधता के लिए कैसे जरूरी बन जाता है सावन?
इन सब बातों और तर्कों से परे असलियत और असल बात दूसरी ही है. सावन के महीने में मांसाहार और कुछ हरी सब्जियों को भोजन से दूर करने के पीछे वैज्ञानिक तर्क दिए जाते हैं कि, बारिश का महीना जैव विविधता (बायो डायवर्सिटी) के पनपने का महीना होता है. जैव विविधता में आने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव भी धरती के वातावरण और पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी हैं. ऐसे में पत्तेदार सब्जियों और शाक पर भी खाने में प्रतिबंध लगाया जाता है, क्योंकि इनमें कीड़े पाए जा सकते हैं. नमी का ये मौसम बैक्टीरिया के पनपने के लिए सबसे उपयुक्त समय होता है. इसीलिए नॉनवेज की भी मनाही की जाती है.
सावन में मांसाहार पर क्या कहता है आयुर्वेद?
सावन में मांस खाना चाहिए या नहीं, इस प्रश्न पर आयुर्वेद के जानकार और डॉक्टर प्रदीप चौधरी (शतभिषा, लखनऊ) बहुत विस्तार से बताते हैं. वह कहते हैं कि, मॉडर्न मेडिसिन के अनुसार सावन में भी मांसाहार करने से कोई दिक्कत नहीं बताई जाती है क्योंकि मांस प्रोटीन का अच्छा सोर्स है.
लेकिन, अगर आप आयु्र्वेद की बात मानें तो इस विषय को कुछ अलग तरीके से समझने की जरूरत है. आयुर्वेद में अलग-अलग जीवों के के मांस का वर्णन और हर मांस के अपने गुणधर्म बताए गए हैं, और यह भी कि कैसे पकाने से उनके गुण बदलते हैं. इसके साथ ही मौसम का भी खानपान पर असर पड़ता है. इसलिए, देश, काल और व्यक्ति के अनुसार इनका सेवन सही अथवा गलत हो सकता है.
आयुर्वेद की मानें तो मानव स्वास्थ्य से जुड़े इस वैदिक ग्रंथ में वर्षाकाल के खान-पान और आहार-विहार के लिए नियम बनाए गए हैं. सावन इसी वर्षा ऋतु के मौसम में आने वाला महीना है, इसलिए बड़ी आसानी से यह सारे नियम सावन के धार्मिक नियमों के साथ जुड़ गए और इनका असली मर्म कहीं पीछे रह जाता है.
वर्षा ऋतु में मांसाहार से परहेज की वजह?
आयुर्वेद के अनुसार स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से वर्षा ऋतु में मौसम में शरीर की अग्नि, यानी भोजन पचाने की शक्ति पूरे साल में सबसे कमजोर होती है. इस दौरान वात और कफ दोनों बढ़े रहते हैं. ऐसे में जो भी आहार भारी, चिकनाई वाला, स्निग्ध और स्राव पैदा करने वाला हो वह पचता नहीं है, बल्कि शरीर में आम (toxins) और रुकावटें पैदा करता है.
डॉ. प्रदीप बताते हैं कि अब अगर आप बकरे के मांस को देखें तो यह यह बलवर्धक, स्निग्ध, स्वाद में भारी और शरीर को भरने वाला माना जाता है, लेकिन इसका यही गुण वर्षा ऋतु में शरीर के लिए नुकसानदेह हो जाता है. जब अग्नि मंद हो और वात-कफ बढ़ा हो, तब यह पच नहीं पाता लिहाजा अपच, भारीपन, पुराने जोड़ों के दर्द का होना और सूजन के साथ नींद में बेचैनी जैसी समस्या होती ही है.
किस पशु/जीव का मांस कैसे करता है असर?
इसी तरह मुर्गे का मांस भी स्वादिष्ट, बल बढ़ाने वाला और चिकनाई से भरपूर होता है, लेकिन आधुनिक पोल्ट्री फार्म के मुर्गों में चिकनाई और कफ बढ़ाने की टेंडेसी अधिक है. यह भी वर्षा ऋतु में अपच, मलसंग, त्वचा पर चिपचिपाहट, जलन और कब्ज जैसे लक्षणों को बढ़ा सकते हैं. इसी तरह वर्षा ऋतु में मछली खाना भी नुकसान देह हो जाता है क्योंकि मछली भले ही जल्दी पक जाती है लेकिन इसका एक गुण अभिष्यंदि, यानी स्राव बढ़ाने वाला भी है. इस तरह यह शरीर में चिपचिपाहट, नमी, खुजली और कफ-विकारों को बढ़ाते हैं.
वर्षा ऋतु में जब वातावरण में पहले से ही नमी और कफ बढ़ा होता है, तब यह और नुकसानदेह बन सकता है.
बीफ और पोर्क का सेवन भी शरीर को इस दौरान नुकसान ही पहुंचाता है. वर्षा ऋतु में इनका सेवन अपच, आम (टॉक्सिन), वमन (उल्टी) और त्वचा विकारों का कारण बन सकता है. कमजोर जठराग्नि वाले लोगों में यह और भी ज़्यादा हानि करते हैं.
सावन ही नहीं भादों में भी मांसाहर डालता है बुरा प्रभाव
यही वजह है कि सावन में मांस खाने को वर्जित किया जाता है, असल में ये वर्जना (परहेज) सिर्फ सावन के धार्मिक कारणों से नहीं है, बल्कि आयुर्वेद के स्वास्थ्य कारणों से है और वर्षा के मौसम के लिए ये नियम बनाया गया है. इसलिए सिर्फ सावन में शिवजी की पूजा की वजह से मांस छोड़ने वाले अगर अगले महीने भादों में मांस खाएंगे और उस वक्त बारिश होगी (जो कि होती ही है) तो भी यह खाने वाले के शरीर को नुकसान पहुंचा ही सकता है.
हालांकि इस दौरान मांस खाने का एक विकल्प मांस का सूप हो सकता है, सूप में मांस के गुणों का अंश रहता है, पर वह अपेक्षाकृत जल्दी पचता है. इसलिए मंद अग्नि वाले रोगियों को भी यह दिया जा सकता है, लेकिन सावधानी के साथ.
इसी आधार पर ऋषियों-मनीषियों ने वर्षा ऋतु के दौरान मांसाहार-मसालेदार, गरिष्ठ भोजन, पत्तेदार सब्जियों आदि का परहेज बताया था, लेकिन इस परहेज के पीछे का कारण धार्मिक या पूजा-पाठ न होकर पूरी तरह से वैज्ञानिक था.
भोजन के विषय में महर्षि चरक के विचार
महर्षि चरक ने, चरक संहिता में भोजन के तीन स्वर्ण नियमों का उल्लेख किया है. हितुभुक, मितुभुक और ऋतुभुक. हितुभुक से तात्पर्य है कि ऐसा भोजन जो हितकारी या कल्याणकारी हो. जिसके प्राप्त करने में किसी को कष्ट न दिया गया हो. मितुभुक से तात्पर्य है कि भोजन उचित मात्रा में होना चाहिए. भले ही भोजन कितना ही हितकारी या स्वादिष्ट हो, लेकिन भोजन की मात्रा नियंत्रित और उचित होनी चाहिए. ऋतुभुक का अर्थ है कि ऋतु और समय के अनुसार सही भोज्य पदार्थ का ग्रहण करना.
भोजन ही हमारे शरीर के पोषण का सबसे जरूरी सोर्स है. यह सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं है, बल्कि हमारी आत्मा का भी पोषक है. इसलिए ऋतु के अनुसार भोजन करना ही उचित माना गया है. तो मांसाहार से परहेज का संबंध सिर्फ धार्मिक कारण या सावन की पवित्रता और शिवपूजन नहीं है, बल्कि इसके पीछे ऋतुचर्या का वह प्राचीन दृष्टिकोण है जो भौगोलिक रूप से प्रायद्वीपीय भारत के लिए जरूरी है.
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